२३ मार्च
उसकी शहादत के बाद बाकी लोग
किसी दृश्य की तरह बचे
ताज़ा मुंदी पलकें देश में सिमटती जा रही झांकी की
देश सारा बच रहा बाकी
उसके चले जाने के बाद
उसकी शहादत के बाद
अपने भीतर खुलती खिडकी में
लोगों की आवाजें जम गयीं
उसकी शहादत के बाद
देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने
अपने चेहरे से आंसू नहीं,नाक पोंछी
गला साफ़ कर बोलने की
बोलते ही जाने की मशक की
उससे सम्बंधित अपनी उस शाहदत के बाद
लोगों के घरों में, उनके तकियों में छिपे हुए
कपड़ों की महक की तरह बिखर गया
शहीद होने की घडी में वह अकेला था इश्वर की तरह
लेकिन इश्वर की तरह वह निस्तेज न था
- पाश
गणगौर के सोलह दिनों की पूजा चल रही है , रोज मिलना सखी सहेलियों से , आधे घंटे का पूजन और एक घंटे की गप्पे , एक दूसरे से हंसी मजाक , छीटाकशी, चुहलबाजी , शैतानियों से लगी रौनक के बीच अपने पुराने भूले बिसरे किस्से याद करते हुए किसी ने रोचक किस्सा सुनाया . उसको याद कर कल से हंसी के कई दौरे पड़ चुके ---
हुआ यूँ कि हमारी एक सखी "जीमन " में अपने दोनों छोटे बच्चों के साथ गयी थी, पंगत में बैठकर पत्तल दोनों में परोसा जाने वाला खाना परोसने वालों की फुर्ती पर निर्भर करता है , सो कई बार पत्तलें खाली भी रह जाती है . परोसने वाले का इन्तजार करते उसने पास ही बैठे अपने छोटे बेटे की पत्तल से रसगुल्ला उठा कर खा लिया , अब तो छोटे महाराज पसर गए . खड़े होकर जोर- जोर से चिल्लाकर रोने लगे , मेरी मम्मी ने मेरा रसगुल्ला खा लिया . बेचारी उससे चुप बैठ जाने की मिन्नतें कर शर्मिंदा होती रही , मगर बेटेलाल गला फाड़ कर पूरी पंगत को सुना कर ही माने ... आखिर जब उनकी पत्तल में रसगुल्ला परोसा गया , तब शांत हुए !!
उस समय उनकी स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है , मगर इस समय खुल कर हंसा जा सकता है !!
जैसे ही टिकट कटा रो पड़े , आँखों का मोतिया ठीक हो गया … असली -नकली साफ़ साफ़ दिखाई देने लगा .....
सालों पहले सुना ये गीत याद आता है आज फिर-
'भगत सिंह सुखदेव राजगुरु पहन वसंती चोले
रात मेरे सपने में आये आकर मुझसे बोले
व्यर्थ गया बलिदान हमारा व्यर्थ गया बलिदान
हम भी अगर चाहते तो सम्मान माँग सकते थे
फाँसी के तख्ते पर जीवनदान मांग सकते थे
लेकिन कुछ न माँगा हमने माँगा हिंदुस्तान
व्यर्थ गया बलिदान हमारा व्यर्थ गया बलिदान'
पाश ... एक स्मरण ...
'पाश' एक कवि थे, उन की कविताओं में ही नहीं, उन के दिल में और रोम रोम में क्रान्तिकारी परिवर्तन की लहर दौड़ती थी। उन्हों ने अपनी पत्रिका एण्टी 47 के माध्यम से खालिस्तान विरोधी प्रचार अभियान छेेड़ा और अन्ततः महज 39 साल की उम्र में 23 मार्च 1988 को उनके ही गांव में खालिस्तानी आतंकवादियों की गोली का शिकार हुए।
नौ सितंबर 1950 को जन्मे पाश का मूल नाम अवतार सिंह संधु था। उन्होंने महज 15 साल की उम्र से ही कविता लिखनी शुरू कर दी और उनकी कविताओं का पहला प्रकाशन 1967 में हुआ। उन्होंने सिआड, हेम ज्योति और हस्तलिखित हाक पत्रिका का संपादन किया। पाश 1985 में अमेरिका चले गए। उन्होंने वहां एंटी 47 पत्रिका का संपादन किया। पाश ने इस पत्रिका के जरिए खालिस्तानी आंदोलन के खिलाफ सशक्त प्रचार अभियान छेडा। पाश कविता के शुरुआती दौर से ही भाकपा से जुड गए। उनकी नक्सलवादी राजनीति से भी सहानुभूति थी। पंजाबी में उनके चार कविता संग्रह.. लौह कथा, उड्डदे बाजां मगर, साडे समियां विच और लडांगे साथी प्रकाशित हुए हैं। हिन्दी में इनके काव्य संग्रह बीच का रास्ता नहीं होता और समय ओ भाई समय के नाम से अनूदित हुए हैं। पंजाबी के इस महान कवि की महज 39 साल की उम्र में 23 मार्च 1988 को उनके ही गांव में खालिस्तानी आतंकवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। पाश धार्मिक संकीर्णता के कट्टर विरोधी थे। धर्म आधारित आतंकवाद के खतरों को उन्होंने अपनी एक कविता में बेहद धारदार शब्दों में लिखा है- मेरा एक ही बेटा है धर्मगुरु वैसे अगर सात भी होते वे तुम्हारा कुछ नहीं कर सकते थे तेरे बारूद में ईश्वरीय सुगंध है तेरा बारूद रातों को रौनक बांटता है तेरा बारूद रास्ता भटकों को दिशा देता है मैं तुम्हारी आस्तिक गोलियों को अर्ध्य दिया करूंगा..।
शहर की सबसे मजबूत लड़की अक्सर रोती है छिपकर क्योंकि रोना कायरता है और उसने किया है हासिल तमगा बहादुरी का, उसके चेहरे पर होनी चाहिए रूखी मुस्कान और दम्भ क्योंकि वीरता के तमगे अट्टहास के साथ जंचते है स्मित के साथ नहीं
उसकी पीठ कलफ लगी है अकड़ी हुई क्योंकि बहादुरी के साथ अकड़ सहजता से आती है।
Sonal Rastogi
इश्क की जुबाँ से
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इश्क की जुबाँ से काला धागा उतरता ही नहीं
जाने किस मौलवी ने बाँधा है
कौन सा मन्त्र फूँका है
जितना खोलने की कोशिश करूँ
उतना ही मजबूत होता है
सुना है
काले धागे में बंधे ताबीज़ों की तासीर
परेशान आत्माओं की मुक्ति का
या फिर नज़र न लगने का सन्देश होती हैं
और
इश्क की नज़रें भला कब उतरी हैं
इश्क में तो जिए या मरें
आत्माएं न कभी मुक्त हुयी हैं
शायद इसीलिए
इश्क की जुबाँ पर काले धागों की नालिश हुयी है
मंद बयार है और अमवारी में पेड़, फलों के बोझ से झुक गए हैं।
लेकिन कुछ लोग कह रहे हैं कि आंधी चल रही है। सुन रहे हैं कि पटापट गिर रहे हैं न जाने कितने कच्चे और खट्टे आम।
जसवंतजी, प्लीज न रोएं। टिकट कटने को बेहद सहजता से लें। यह राजनीति है, राजनीति। यहां अक्सर ऐसा ही होता है। यों करें, कोई दूसरा दल ज्वाइन कर लें। इन दिनों हर दल की लाइनें खुली चल रही हैं। उम्मीद है, आपको ठीक-ठाक जगह मिल जाएगी। आपके कने अनुभव की कमी थोड़े न है!
अमर शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को विनम्र श्रद्धांजलि के साथ दिन की शुरुआत...
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(हे वीरों... दुःख की बात ये है कि आज भी भगत सिंह की तस्वीर लगाकर कुछ दल्ले, "बहुत क्रांतिकारी, बहुत ही क्रांतिकारी" के नारे लगा रहे हैं, वो भी कान में फुसफुसाकर... - हम "वाकई शर्मिंदा हैं.. बहुत ही शर्मिंदा...")
सुप्रभात मित्रों...
नदी करवट लेती है रह रह कर,
बल पड़ते हैं पानी के पेट में,
पानी की नाजुक कोख से टीसें गुजरती हैं,
मुझे डर लगता है अमृत मांगने से !!
(गुलजार)
पाँच बरस के बाद ही, उनसे होती भेंट।
मेरे घर की चाँदनी, जिसने लिया समेट।।
2 hrs ·
ध्वनि तरंगो की ताल पर आप हैं विविध भारती के साथ और अगली फरमाइश आई है बारमेंड से जसवंत सिंह, अमृतसर से नवज्योत सिंह सिद्धू, लखनऊ से लालजी टंडन और इलाहाबाद से केशरी नाथ त्रिपाठी जी की,
गाने के बोल हैं "गैरों पे करम अपनों पे सितम ऐ जान-ए-वफा ये ज़ुल्म न कर"
इसे डेडिकेट किया है भारतीय जनता पार्टी को
कांग्रेस भाजपा तो के उम्मीदवारों की तो पूछिए ही मत 'आप' जैसी पार्टियों के उम्मीदवार करोड़पति है। ये संसद में क्या खाक 32 रुपये रोज़ कमाने वालों की नुमाइंदगी करेंगे? देश का वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य अमीरों के आपसी संघर्ष को दर्शाता है जिसमें शामिल होकर मध्यमवर्ग, उच्च मध्यमवर्ग हीजडों की तरह ताली बजा रहा है, असल गरीब आम जनसाधारण तो जीने के लिए कल भी एडिया रगड़ रहा था, आज भी रगड़ रहा है और कल भी रगड़ेगा।
तेईस साल की उम्र क्या होती है, भगत सिंह का जब भी जिक्र होता है उनका ध्यान आता है तो तेईस साल की उम्र भी सामने घूम जाती है , अभी के तेईस साल के लड़कें लड़कियां क्या करते हैं, उनके समय के तेईस साल के लड़कें क्या करते होंगे? मस्ती, हंसी-ठट्टा , दोस्तों के साथ अड्डेबाज़ी , उनकी माँओं का उनके पीछे पीछे होना और उनके पिता का उन्हें नालायक समझना ! लेकिन वो अपनी उम्र से कितना आगे थे, क्या कद था उनकी छोटी सी ज़िन्दगी के विशाल किरदार का! क्या फलक था उनका, क्या दृष्टि थी उनके पास, अपना देश, समाज , धर्म, दुनियां की तमाम क्रांतियों सब पर उनके विचार कितने गंभीर, जिम्मेदार और अपने समय से आगे ! एक ओर तेईस साल के भगत तो दूसरी ओर उनके जैसा कोई नहीं मिलेगा! उनकी बातों की धार और इंक़लाब ---
क्रांति मानव जाति का एक अपरिहार्य अधिकार है. स्वतंत्रता सभी का एक कभी न खत्म होने वाला जन्मसिद्ध अधिकार है. श्रम समाज का वास्तविक निर्वाहक है!
ज़िन्दगी तो अपने दम पर ही जी जाती हे … दूसरो के कन्धों पर तो सिर्फ जनाजे उठाये जाते हैं .”
निष्ठुर आलोचना और स्वतंत्र विचार ये क्रांतिकारी सोच के दो अहम लक्षण हैं.
व्यक्तियों को कुचल कर उनके विचारों को नहीं मार सकते.
मैं इस बात पर जोर देता हूं कि मैं महत्त्वाकांक्षा, आशा और जीवन के प्रति आकर्षण से भरा हुआ हूं पर जरूरत पड़ने पर मैं ये सब त्याग सकता हूं, और वही सच्चा बलिदान है!
जो व्यक्ति विकास के लिए खड़ा है उसे हर एक रूढ़िवादी चीज की आलोचना करनी होगी, उसमें अविश्वास करना होगा तथा उसे चुनौती देनी होगी!
प्रेमी, पागल, और कवी एक ही चीज से बने होते हैं।
राख का हर एक कण मेरी गर्मी से गतिमान है मैं एक ऐसा पागल हूँ जो जेल में भी आज़ाद है.
और आखिर में …
क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है !
अंजू शर्मा feeling meh
या इलाही ये माज़रा क्या है!!!!!!!! गौर कीजिये जब काम बहुत हो और जरूरी हो तो नेट नखरे जरूर दिखाता है! कई जरूरी काम हो नहीं पाये और कई अधूरे रह गए.......