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रविवार, 30 सितंबर 2012

कुछ कहते , कुछ सुनते .....ये चेहरे













‎"मित्रता का अर्थ है - पारस्परिक ईमानदारी, भावनात्मक लगाव और मानसिक समदृष्टि "
- पर ये तीनो होना चाहिए, कोई एक भी न हो तो शेष का अस्तित्व नहीं रह पता....!!
शुभ दिन दोस्तों !!!!





सुप्रभात के साथ फिर कुछ दिल से...
झुकता नहीं है वो उसे मत बोल घमंडी.....
----------------------------
तुम देवता नहीं हो इंसान समझ लो
जाना है सबको एक दिन शमशान समझ लो
ले कर के हाथ खाली आये थे जहाँ में
भगवान् ने किया है धनवान समझ लो
जिसने तुम्हें दिल से यहाँ दी हैं दुआएं यार
उसका भी है तुम पे कोई अहसान समझ लो
शैतान बहुत हैं यहाँ लड़ना है अकेले
अब आयेगा न इस तरफ भगवान् समझ लो
जो बोल के दिया तो लगे लूट की दौलत
अब कह रहा है वो तो उसे दान समझ लो.
झुकता नहीं है वो उसे मत बोल घमंडी
खुद्दार है 'पंकज' की यही शान समझ लो


कुछ दिनोँ पहले इस्लाम पर एक फिल्म बनी। भारत सहित अन्य देशोँ के मुस्लिम समाज ने हिँसक विरोध जताया । अब वाराणसी, इलाहाबाद, कानपूर तथा अन्य जगहोँ पर हिँदू समाज एक फिल्म 'Oh My God' का विरोध कर रहे है। तोड-फोड किए जा रहे है, पोस्टर फाडे जा रहे है, फिल्म के प्रदर्शन को जबरन रोका जा रहा है॥ फिल्म मेँ भगवान के अस्तित्व पर सवाल खडे किए गए है और आस्था के नाम पर किए जाने वाले अनैतिक तथा अव्यवहारिक कार्यो की आलोचना की गई है !! इससे पहले तस्लीमा नसरीम और सलमान रुशदी जैसे लेखकोँ ने अपने किताब मेँ इस्लाम के बारे मेँ कुछ आलोचनात्मक टिप्पणी किया । तस्लीमा को देश निकाला दिया गया ।सलमान पर फतवा जारी किया गया तथा इनके किताब को भारत सहित अनेक देशोँ मेँ बैन किया गया !! इन फिल्मोँ/किताबोँ का विरोध कितना वाजिब है ??
लोगोँ का अपने धर्म और भगवान मेँ आस्था /विश्वास इतना कमजोर है कि वेँ किसी के आलोचना मात्र से हिँसक विरोध करने लगते है ?? धर्म के नाम पर किए जाने वाले कर्मकांड और धर्मग्रन्थोँ मेँ वर्षो पहले लिखी गई हर बात जरुरी तो नहीँ कि आज भी व्यवहारिक हो। बहुत अव्यवहारिक भी होते है॥ अगर इन अव्यवहारिक कर्मकांडो/बातोँ की आलोचना की जाती है, तो बजाए हिँसक होने के हमेँ इस पर गंभीरता से और खुले दिमाग से विचार नहीँ करना चाहिए ??

प्राय: हिँसक विरोध की अगुवाई वैसे धर्मगुरु करते है जिन्होँने धर्म को धंधा बना दिया है। इन्हेँ डर होता है कि अव्यवहारिक कर्मकांडोँ की आलोचना से इनका धंधा चौपट हो सकता है। विरोध करने वाली भीड का एक बडा हिस्सा ना तो विवादित फिल्म देखे होते है, न विवादित किताब पढे होते है। उनमेँ से बहुतोँ को तो पता भी नहीँ होता कि फिल्म/किताब मेँ विवादित क्या है...फिर भी वेँ धर्म को धंधा बनाने वाले धर्मगुरुओँ के बहकावे मेँ आकर चल देते है हिँसक विरोध करने। मानोँ अपने धर्म और भगवान से ज्यादा आस्था इन्हेँ धर्म को धंधा बनाने वाले धर्मगुरुओँ मेँ है !!!

क्या फिल्मकारोँ, कलाकारोँ, लेखकोँ, कार्टूनिस्टोँ, पत्रकारोँ को अपने क्रिएटिविटी प्रदर्शित करने की आजादी नहीँ दी जानी चाहिए...उनकी रचनात्मकता सीमित कर दी जाए ?? जैसे हमेँ बचपन मेँ स्कूलोँ मेँ चार विकल्प (विधालय, पुस्तक, मेला, न्यूजपेपर) मेँ से किसी एक पर निबंध लिखने को कहा जाता था...वैसे ही इन्हेँ भी विकल्पोँ की एक सूची थमा दी जाए कि आपको भी इन्हीँ विकल्पोँ मेँ से किसी पर फिल्म बनानी है/किताब लिखनी है...और साथ मेँ यह सख्त हिदायत भी दी जाए की उस फिल्म/किताब मेँ कुछ आलोचनात्मक नहीँ होना चाहिए ??





सुनो बापू,
सत्य और संयम के सभी प्रयोगों के प्रेत
हर बरस निकल आते हैं अपनी कब्रों से,
भटकते हैं, मूतते हैं उस दीवार पर,
चिल्लाते हैं सेक्स, सेक्स और
खुद ही अपनी सड़ांध से बेहोश हो
सो जाते हैं
बस एक साल के लिए............(एक कविता से ........)


‎25 साल पहले क्रिकेट के पिछे दिवानगी गजब की थी. जहाँ समय मिला यानी स्कूल की आधी-छूट्टी के समय में भी, जहाँ जगह मिली चाहे वह स्कूल का गलियारा हो और गेंद नहीं तो कपड़े को लपेट कर बनाया गया गोला हो, बेट नहीं तो लकड़ी सही, वह अभी न हो तो खाली हथेली ही सही मगर क्रिकेट खेलते थे. भारत की हार रोने के लिए बहुत थी. यह स्थिति थी हमारी और आज की पीढ़ी को देखता हूँ वह क्रिकेट में कम फूटबोल व अन्य खेलों में रूची ले रही है तो अच्छा लगता है. हाँ अपना क्रिकेट का बुखार तो कब का उतर चुका. धन्यवाद अजहरूद्दिन एंड पार्टी.





माँ
. . . . . . . . . . . . .
माँ रूनियाँ है माँ मुनियाँ है
झुनझुना की झुनझुनियाँ है
माँ शक्ति है माँ भक्ति है
वो ममता की अभिव्यक्ति है
माँ प्यारी है माँ न्यारी है
माँ से ही दूनियाँदारी है
माँ दौलत है माँ पुँजी है
आँचल में ममता गुँजी है
माँ रोटी है माँ चावल है
देती खुशियाँ वो पल पल है
माँ धुप भी है माँ छाँव भी है
माँ वैतरणी की नाव भी है
माँ कोमल है माँ शीतल है
वो हर कठिनाई की हल है
माँ भाषा है माँ बोली है
माँ से दीपावली होली है
माँ दीपक है माँ बाती है
वो स्नेह सदा बरसाती है
माँ चुड़ी है माँ साड़ी है
जीवन की अद्भुत गाड़ी है
माँ थाली भी माँ प्याली भी
गुड़िया के होंठ की लाली भी
माँ चंदन है माँ टीका है
बिन उसके जीवन फीका है
माँ स्याही है माँ पन्ना है
हर बचपन की तमन्ना है
माँ चाहत है और चाह भी ही
जीवन जीने की राह भी है
माँ पगली है दीवानी है
माँ की अनगिनत कहानी है
माँ सिक्का और अठन्नी भी
होंठों की हँसी चौवन्नी भी
माँ नदियाँ है माँ गागर है
ममता की गहरी सागर है
माँ चुल्हा है माँ काठी है
माँ ही बचपन की लाठी है
माँ भुख भी है माँ प्यास भी है
हर जज्ब की वो एहसास भी है
हर रूप मेँ माँ हर रँग में माँ
माँ माँ है माँ है माँ है माँ






‎@लोक में ऐसे प्रयोग प्रचलित हैं और कोई आवश्यक नहीं कि कहने वाला 'स्त्री' जाति के प्रति कोई पूर्वग्रह रखता हो।

- गिरिजेश भोजपुरिया

सहमत हूं। यहीं देखिये। मुंशी प्रेमचंद की कहानी पूस की रात में हलकू जब खेत में रखवाली करते हुए ठंड के मारे परेशान हो जाता है तो कहता है -

"यह रांड पछुआ न जाने कहाँ से बरफ लिए आ रही है, उठूँ, फिर एक चिलम भरूँ"

इस तरह के कई शब्द हैं जो किसी को जान बूझकर हत करने की भावना से नहीं कहे जाते, बस लोक प्रचलन में आ गये हैं।

("शब्द चर्चा ग्रुप" में रांड, रंडापा, रंडुआ पर चली बहस का अंश)

https://groups.google.com/forum/?fromgroups#!topic/shabdcharcha/MKotdrSKm5I[1-25]





इज्जत की रोटी
आलोक पुराणिक

एक बुजुर्गवार बताया करते थे कि घर छोड़कर रेस्ट्रॉन्ट में खाने-पीने वो लोग जाते हैं, जिनकी पत्नियां उन्हें घर में इज्जत के साथ खाना नहीं देतीं। सो बंदा बाहर रेस्ट्रॉन्ट में वेटरों को टिप वगैरह देकर इसके बदले उनसे इज्जत हासिल करने जाता है।


अब बाहर और खासकर धांसू रेस्ट्रॉन्ट्स में भी खाकर इज्जत ना मिल रही है, ना बच रही है। भीख मांग कर खाने में और धांसू रेस्ट्रॉन्ट्स में खाने में बस यही फर्क रह गया है कि भीख मांगकर खाने में बेइज्जती कम होती है, सिर्फ एक ही लाइन में लगकर खाना मिल जाता है। जो देना है, एक बार में दे दे। धांसू रेस्ट्रॉन्ट में तीन-तीन, चार-चार बार लाइनों में लगो। पहली लाइन में लगकर बताओ क्या खाना है, रकम थमाओ, रसीद कटाओ। दूसरी लाइन में लगकर रसीद दिखाओ और खाना सप्लाई सेंटर से खाना पकड़ो। तीसरी-चौथी लाइन में तब लगिए अगर रोटी तीन के बजाय चार खानी हो, तो दोबारा रकम देकर रसीद कटाओ। इतनी लाइनों में लगकर शर्मदार बंदा सोचने लगता है कि अपने पैसे खर्च करके किसी राहत शिविर में खाना खा रहे हैं।



उग्र युवा पीढ़ी को धैर्य, संयम की शिक्षा देने की एक तरकीब मैंने यह सोची है कि बेट्टे ऐसे रेस्ट्रॉन्ट्स में भरपेट खाना खाकर दिखाओ। इससे बंदे की चमड़ी मोटी हो जाती है, वह दुनिया को झेलने के काबिल हो जाता है। इस संबंध में रेस्ट्रॉन्ट दो तरकीबें अपनाते हैं। तरकीब नंबर एक तो यह कि रेस्ट्रॉन्ट वाले आपकी सीट के पास व्यग्र, प्रतिबद्ध खाने के इच्छुक सीटाकांक्षी छोड़ देते हैं, जो ऐसे घूरते हैं कि अबे उठ, कित्ता खाएगा बे। तरकीब नंबर टू, यह कि सीटाकांक्षी रेस्ट्रॉन्ट के गेट से बाहर लाइन में रहते हैं और झांक-झांककर अंदर वालों को बताते रहते हैं कि उठो तुम्हारी वजह से हम भूखे हैं। अपनी ही रकम से खरीदा गया खाना अपराध सा लगता है।


मैं अपनी पत्नी को समझाता हूं कि बाहर खाना बहुत बेइज्जती का काम हो गया है अब। पत्नी साफ करती है, जमाना बदल गया है, अब इज्जत या रोटी में से किसी एक को ही चुन सकते हो।




देखा है कई बार सूरत बदल-बदल के,
नासमझ है आइना,वो नहीं बदलता !




तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे

..फ़राज़



वे जो अब हिन्दी ब्लॉग जगत की हलचल हुआ करते थे अब कहीं नहीं दिखते,किस बियाबान में खो गए?
कैसे होंगे वे लोग? ईश्वर न करे उनके साथ कोई अनहोनी न हुई हो ...
वे यहाँ भी तो नहीं दिखते :-( फानी दुनिया में कोई निशानी भी नहीं उनकी!



मिज़ाज़ उनका कभी समझा नही जाता,
कभी खुद में,कभी दुनियां मे नजर आते हैं,
मुझमें शामिल हैं मेरी तनहाई की तरह...
मुझसे मिलने भी वो महफ़िल में आते हैं....:)




हमने तो सुना था, कि - सिर्फ... सरकार उनकी है ?
पर,
यहाँ तो -
सारा मुल्क ...
उनके .......... बाप की जागीर हमको लग रहा है ??




उमरगुल की बत्ती गुल......अफरीदी को एक्सरे कराना पड़ेगा.......एक-दो और चोटिल पाकिस्तान के...........कोहली, प्यारे कोहली........अपने पड़ोसियों के साथ प्यार से पेश आना था ना.......इतना क्यों मारा...... ;)



नाटककार, आलोचक, कवि और राजनेता साथी शिवराम की द्वितीय पुण्य तिथि पर आज साँय आशीर्वाद हॉल कोटा में श्रद्धांजलि सभा व परिचचर्चा का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के आरंभ में 'विकल्प' अ.भा. जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा के राष्ट्रीय अध्य़क्ष डॉ. रविन्द्र कुमार 'रवि', महामंत्री महेन्द्र 'नेह' साथियों के साथ गीत 'साथी मिल के चलो गाते हुए ....





एक जंगल था । गाय, घोड़ा, गधा और बकरी वहाँ चरने आते थे । उन चारों में मित्रता हो गई । वे चरते-चरते आपस में कहानियाँ कहा करते थे । पेड़ के नीचे एक खरगोश का घर था । एक दिन उसने उन चारों की मित्रता देखी ।

खरगोश पास जाकर कहने लगा - "तुम लोग मुझे भी मित्र बना लो ।"उन्होंने कहा - "अच्छा ।" तब खरगोश बहुत प्रसन्न हुआ । खरगोश हर रोज़ उनके पास आकर बैठ जाता । कहानियाँ सुनकर वह भी मन बहलाया करता था ।

एक दिन खरगोश उनके पास बैठा कहानियाँ सुन रहा था । अचानक शिकारी कुत्तों की आवाज़ सुनाई दी । खरगोश ने गाय से कहा - "तुम मुझे पीठ पर बिठा लो । जब शिकारी कुत्ते आएँ तो उन्हें सींगों से मारकर भगा देना ।"

गाय ने कहा - "मेरा तो अब घर जाने का समय हो गया है ।"तब खरगोश घोड़े के पास गया । कहने लगा - "बड़े भाई ! तुम मुझे पीठ पर बिठा लो और शिकारी कुत्तोँ से बचाओ । तुम तो एक दुलत्ती मारोगे तो कुत्ते भाग जाएँगे ।"घोड़े ने कहा - "मुझे बैठना नहीं आता । मैं तो खड़े-खड़े ही सोता हूँ । मेरी पीठ पर कैसे चढ़ोगे ? मेरे पाँव भी दुख रहे हैं । इन पर नई नाल चढ़ी हैं । मैं दुलत्ती कैसे मारूँगा ? तुम कोई और उपाय करो ।

तब खरगोश ने गधे के पास जाकर कहा - "मित्र गधे ! तुम मुझे शिकारी कुत्तों से बचा लो । मुझे पीठ पर बिठा लो । जब कुत्ते आएँ तो दुलत्ती झाड़कर उन्हें भगा देना ।"गधे ने कहा - "मैं घर जा रहा हूँ । समय हो गया है । अगर मैं समय पर न लौटा, तो कुम्हार डंडे मार-मार कर मेरा कचूमर निकाल देगा ।"तब खरगोश बकरी की तरफ़ चला ।

बकरी ने दूर से ही कहा - "छोटे भैया ! इधर मत आना । मुझे शिकारी कुत्तों से बहुत डर लगता है । कहीं तुम्हारे साथ मैं भी न मारी जाऊँ ।"इतने में कुत्ते पास अ गए । खरगोश सिर पर पाँव रखकर भागा । कुत्ते इतनी तेज़ दौड़ न सके । खरगोश झाड़ी में जाकर छिप गया । वह मन में कहने लगा - "हमेशा अपने पर ही भरोसा करना चाहिए ।"
सीख - दोस्ती की परख मुसीबत मे ही होती है।


शनिवार, 11 अगस्त 2012

चेहरे जो बयां करते हैं ....







कल मैंने एक प्रस्ताव दिया था. कई मित्रों की उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएं आई हैं. आज उसे थोड़ा स्पष्ट रूप से सामने रख रहा हूँ.

मेरा प्रस्ताव है कि दो वरिष्ठ कवियों के साथ बिलकुल नए कवियों की दो दिन की एक 'कविता-कार्यशाला' लगाई जाय. कार्यशाला में रचना प्रक्रिया, शिल्प, भाषा, परम्परा को लेकर अनौपचारिक माहौल में खुली बातचीत हो. साथ में हिन्दी की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के बारे में जानकारी और कुछ व्यवहारिक बातें भी हों. साथ में अंतिम दिन उन कवियों का एक सार्वजनिक काव्यपाठ भी होगा और ऐसे कुछ प्रयासों के बाद शार्टलिस्ट किये गए कवियों की चयनित कविताओं का एक संकलन भी प्रकाशित किया जाएगा.

कार्यशाला हेतु चयन का तरीका यह कि इच्छुक कवि अपनी दस प्रतिनिधि कवितायें मुझे मेल कर दें जिन्हें मैं और कुछ वरिष्ठ कवि पढेंगे तथा उनमें से संभावनाशील लोगों को शामिल किया जाएगा. इस कार्यशाला का जो भी व्यय होगा वह प्रतिभागियों में बाँट दिया जाएगा.

इच्छुक कवि अपनी रचनाएँ मुझे ashokk34@gmail.com पर भेज सकते हैं. आप सबके सुझाव भी आमंत्रित हैं.





  • ये कैसा मुल्क है 'उदय', जहां चोर-उचक्कों की बादशाहत है
    क्या गरीबों-मजलूमों के सिबाय, यहाँ कोई और नहीं रहता ?



    झमाझम बारिश के बीच राष्ट्रीय मीडिया चौपाल 2012 " में भाग लेने के लिए भोपाल जा रहे हैं | रायपुर से गिरीश पंकज, संजीत त्रिपाठी साथ होंगे, रास्ते में काव्य एवं व्यंग्य वर्षा की संभावना है। मिलते हैं एक शार्ट ब्रेक के बाद, कहीं जाईएगा नहीं, आता हूं शीघ्र ही लौट कर :))



    खबरिया चैनलों से बाबा रामदेव गायब !!!!
    .... क्या जनआंदोलन अप्रासंगिक हो गए ?
    .... क्या राजनीति सेटिंग और खरीद फरोख्त का पर्याय बन गयी है ?

     

    समझदार मंत्री अपने मुख्य चिंटू अफ़सर को बुलाते हैं. उसे समझाते हैं, "देखो, 2 लाख करोड़ के घपले का मौक़ा है. सबसे पहले स्विस बैंक में अपना खाता खोल लो. और देखो, खाता अपने नाम से नहीं, बीवी या साली के नाम से खोलना. वहीं से एनरूट करवा देंगे तुम्हारे लिए सौ करोड़. बाक़ी का मैडम के खाते में चला जाए, इसक पूरा इंतज़ाम बना देना. चुपचाप, किसी को किसी तरह ख़बर न हो. ख़याल रखना." और सब हो जाता है.

    उन मंत्रियों के बारे में आप स्वयं राय बनाएं जो मीडिया के सामने अपने अफ़सरों से कह दें, " देखो, काम करो. जनता का काम न रुके तो सौ-पचास तुम भी खा लो. कोई हर्ज नहीं है."

    मंत्री जी की सलाह के बाद, अब मैं खुलकर दिलों की चोरी किया करूंगा...क्योंकि चोरी करना बुरी आदत नहीं...
     

     

    ट्विटर से यह ऑफीशियल कथन है: माननीय जी कह रहे हैं - कस कर काम करो, थोड़ी चोरी मत करो।
     

    ‎(older post)

    जाते जाते..

    वो कह के गए ..

    "खुदा करे ...

    हम जैसा कोई ना मिले.."

    ऐ खुदा ..

    उनकी दुआ कबूल कर..

    कि..

    उन जैसा कोई ना मिले..

    --

    "SUMAN"

     

    बेअदबी है , तन्हा दिल की नुमाइश,
    जख्म महफ़िल में दिखाए नहीं जाते !
     
     
     

    दोस्तों अपन भी आज रात जयपुर अजमेर बांसवाडा चित्तोड गढ़ उदयपुर अहमदाबाद की यात्रा पर निकल रहे है .. अहमदाबाद में बेंगानी जी का आमंत्रण बहुत पुराना है सो सोचा इस बार कैश करा लिया जाए ....यात्रा सडक मार्ग से ....अनिल पुसदकर जी से प्रेरणा पाकर ....सोचा उनकी आधी यानि २००० किलोमीटर तो हम भी वाहन चालना कर ही डाले ...:)
     
     

    गुडगाँव की उबड खाबड सडको और धुल भरे रास्तो पर कंधे पर लैपटॉप और हाथ मैं आईफोन लिए साइकिल रिक्शे की सवारी , बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर हमारी !
     
     
     

    दीवाने हैं आपके इस बात से इंकार नहीं
    कैसे कहें की हमे आप से प्यार नहीं
    कुछ तो कसूर है आपकी अदाओं का
    अकेले हम ही तो बस गुनाहकार नहीं
      


    क्या कहें तुझसे शिकवा बड़ा है जिंदगी
    और कहें तो भी फायदा क्या है जिंदगी
    माटी है आग है पानी है हवा है जिंदगी
    बाकी तो सांसों के सिवा क्या है जिंदगी
    रोनके दुनिया होगी ज़माने की सोच में
    मेरे लिए ढाई गज का टुकड़ा है जिंदगी
    मोत की किसे मालूम ये सब जानते हैं
    साँस जब तक है प्यारे ज़िंदा है जिंदगी
    जानता है आदमी पर कभी सोचता नहीं
    खाली हाथों के सफर का पता है जिंदगी
    ढल गया दिन अँधेरा होने को है आलम
    अँधेरे के पार ही तो नूरे खुदा है जिंदगी.



रविवार, 29 जुलाई 2012

आज चेहरों ने फ़िर कुछ कहा है








ज़िन्दगी ..................तुम्हे मुझसे गिला और मुझे तुमसे ,फिर भी मुझे तुम्हारी जरुरत है और तुम्हे मेरी !!!!



  • मीडिया पोंकर रहा था - भीड़ नदारद! अब अचानक अण्णा का जादू चलने लगा? क्या जंतर मन्तर पर चाट पकौड़ी खाने जा रहे हैं लोग?




दिल की बात किसके साथ ?
माँ के साथ , पत्नी के साथ या दोस्त के साथ


उसको थी पसंद शानो-शौकत
मुझे लगा, शायद वो मेरी सादगी पे मरती है
उसको थी पसंद, दौलत, पैसा
मुझे लगा उसे सिर्फ चाहिये मेरे जैसा
उसको थी आती, बातें बनानी
मुझे लगा, वो कहती है दिल की
वो तब भी जी सकती थी मेरे बिना,
मुझे लगा वो अब भी करती है याद मुझे...(क्रमशः )

  • टीम अन्ना सरकार की तरह कुटिल नहीं है ....उसकी बातों में कोई फेर नहीं है .....उसको बैकफुट पर लाने के लिए फेर ढूंढे जा रहे है या आयतित किये जा रहे है.....जैसा कोई भूखा बिना किसी भूमिका के दो रोटी मांगता है ठीक अन्ना टीम भी भ्रष्टाचार पर अंकुश और शमन के लिए जनहित में लोकपाल ही तो मांग रही है कोई दिल्ली का ताज तो नहीं ....


पिछले 55 साल से रोज पूजा करता हूं, क्योंकि मेरा यकीन है पूजा पर... जब तक जरूरत होगी टीम अन्ना के पक्ष में सड़कों पर उतरता रहूंगा- अनुपम खेर


मुझे डर है अब तिवारी जी गुस्से में आकर कहीं "आल इंडिया पापा कांग्रेस" की स्थापना न कर दें ( दरसल वे पहले भी अपनी एक अलग कांग्रेस बना चुके हैं... ' तिवारी कांग्रेस' )



  • जो लोग इस आन्दोलन को अभी-भी हलके में ले रहे हैं ... वे संभल जाएं ... इस बार भ्रष्टाचारियों के दांव-पेंच काम नहीं आएंगे ... अन्ना और जनता की जीत होगी ... जय हो ! विजय हो !!

    एक शेर -
    इस बार, लड़ाई... आर-पार की है
    मारेंगे या मर जाएंगे, जय हिंद !!


  • आज समुद्रतट पर गई थी... विशालकाय सागर के सामने ऐसा लगता है हम अस्तित्वविहीन हैं...इन्सान तो सिर्फ कण मात्र है इस प्रथ्वी पर..लेकिन वो हमेशा अपने आप को superior समझता है ...


गुटखा पर प्रतिबंध शराब पर क्यों नहीं ?

क्योंकि गुटखा गरीब खाता है शराब अमीर पीता है ?



तीन दिन वॉक पर नहीं जाओ तो क्या वजन बढ़ जाता है क्या ?



यह आंदोलन है "जनलोकपाल" के लिए, "भीड" के लिए नही । इस आंदोलन का एकमात्र मकसद है "जनलोकपाल" पास करवाना, "भीड" जुटाना नहीँ ॥
फिर 'भीड' को लेकर इतनी हाय-तौबा क्यूं ??
जिसे 'भीड' की इतनी ही पडी है और बस 'भीड' की ही तलाश है, वो एक 'बंदर' और 'डमरु' लेकर सडक किनारे बैठ जाए..भीड खुद-व-खुद खिँची चली आएगी !!!


गीत मेरे, सन्नाटे चीर जायेंगें, तनहाई में ये तेरे संग गायेंगे, गुनगुनाना जब फुसफुसा के इन्हें, तराने लबों पे तेरे तैर जायेंगें, जो न मुस्कुरा उठो गीत मेरे गा कर, जो तडप उटे न दिल गजल मेरी गा कर, तय है कि गीत मेरे तुझे शायर करेंगें, जब जब भी याद मेरे शेर करोगे, जिंदा हम तेरे वजूद में उतर आयेंगें, क्या हुआ जो हमको तुम न पा सके, जो चलोगे राह मेरी, तुममें सदा हम ही नजर आयेंगें

कुछ बातें ख़ामोशी में ही अच्छी लगती हैं .... जैसे 'हम' और 'तुम' .....




मैं बनूँ खुशबू पारिजात की
महकी-महकी खुली पात की
साँसों में तेरी समाई रहूँ
ख्वाबों में तेरे छाई रहूँ
-अर्चना


हाथों में आने से पहले नाज दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले;
पथिक,न घबरा जाना,पहले मान करेगी मधुशाला।
(बच्चन)
……………आज भी ताजा है बात।नहीं ?

जिन्दगी और मौत दोनो सहमेँ सहमेँ से हैँ ... दम निकलने न पाये तो मैँ क्या करुँ ...।