"मित्रता का अर्थ है - पारस्परिक ईमानदारी, भावनात्मक लगाव और मानसिक समदृष्टि "
- पर ये तीनो होना चाहिए, कोई एक भी न हो तो शेष का अस्तित्व नहीं रह पता....!!
शुभ दिन दोस्तों !!!!
सुप्रभात के साथ फिर कुछ दिल से...
झुकता नहीं है वो उसे मत बोल घमंडी.....
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तुम देवता नहीं हो इंसान समझ लो
जाना है सबको एक दिन शमशान समझ लो
ले कर के हाथ खाली आये थे जहाँ में
भगवान् ने किया है धनवान समझ लो
जिसने तुम्हें दिल से यहाँ दी हैं दुआएं यार
उसका भी है तुम पे कोई अहसान समझ लो
शैतान बहुत हैं यहाँ लड़ना है अकेले
अब आयेगा न इस तरफ भगवान् समझ लो
जो बोल के दिया तो लगे लूट की दौलत
अब कह रहा है वो तो उसे दान समझ लो.
झुकता नहीं है वो उसे मत बोल घमंडी
खुद्दार है 'पंकज' की यही शान समझ लो
कुछ दिनोँ पहले इस्लाम पर एक फिल्म बनी। भारत सहित अन्य देशोँ के मुस्लिम समाज ने हिँसक विरोध जताया । अब वाराणसी, इलाहाबाद, कानपूर तथा अन्य जगहोँ पर हिँदू समाज एक फिल्म 'Oh My God' का विरोध कर रहे है। तोड-फोड किए जा रहे है, पोस्टर फाडे जा रहे है, फिल्म के प्रदर्शन को जबरन रोका जा रहा है॥ फिल्म मेँ भगवान के अस्तित्व पर सवाल खडे किए गए है और आस्था के नाम पर किए जाने वाले अनैतिक तथा अव्यवहारिक कार्यो की आलोचना की गई है !! इससे पहले तस्लीमा नसरीम और सलमान रुशदी जैसे लेखकोँ ने अपने किताब मेँ इस्लाम के बारे मेँ कुछ आलोचनात्मक टिप्पणी किया । तस्लीमा को देश निकाला दिया गया ।सलमान पर फतवा जारी किया गया तथा इनके किताब को भारत सहित अनेक देशोँ मेँ बैन किया गया !! इन फिल्मोँ/किताबोँ का विरोध कितना वाजिब है ??
लोगोँ का अपने धर्म और भगवान मेँ आस्था /विश्वास इतना कमजोर है कि वेँ किसी के आलोचना मात्र से हिँसक विरोध करने लगते है ?? धर्म के नाम पर किए जाने वाले कर्मकांड और धर्मग्रन्थोँ मेँ वर्षो पहले लिखी गई हर बात जरुरी तो नहीँ कि आज भी व्यवहारिक हो। बहुत अव्यवहारिक भी होते है॥ अगर इन अव्यवहारिक कर्मकांडो/बातोँ की आलोचना की जाती है, तो बजाए हिँसक होने के हमेँ इस पर गंभीरता से और खुले दिमाग से विचार नहीँ करना चाहिए ??
प्राय: हिँसक विरोध की अगुवाई वैसे धर्मगुरु करते है जिन्होँने धर्म को धंधा बना दिया है। इन्हेँ डर होता है कि अव्यवहारिक कर्मकांडोँ की आलोचना से इनका धंधा चौपट हो सकता है। विरोध करने वाली भीड का एक बडा हिस्सा ना तो विवादित फिल्म देखे होते है, न विवादित किताब पढे होते है। उनमेँ से बहुतोँ को तो पता भी नहीँ होता कि फिल्म/किताब मेँ विवादित क्या है...फिर भी वेँ धर्म को धंधा बनाने वाले धर्मगुरुओँ के बहकावे मेँ आकर चल देते है हिँसक विरोध करने। मानोँ अपने धर्म और भगवान से ज्यादा आस्था इन्हेँ धर्म को धंधा बनाने वाले धर्मगुरुओँ मेँ है !!!
क्या फिल्मकारोँ, कलाकारोँ, लेखकोँ, कार्टूनिस्टोँ, पत्रकारोँ को अपने क्रिएटिविटी प्रदर्शित करने की आजादी नहीँ दी जानी चाहिए...उनकी रचनात्मकता सीमित कर दी जाए ?? जैसे हमेँ बचपन मेँ स्कूलोँ मेँ चार विकल्प (विधालय, पुस्तक, मेला, न्यूजपेपर) मेँ से किसी एक पर निबंध लिखने को कहा जाता था...वैसे ही इन्हेँ भी विकल्पोँ की एक सूची थमा दी जाए कि आपको भी इन्हीँ विकल्पोँ मेँ से किसी पर फिल्म बनानी है/किताब लिखनी है...और साथ मेँ यह सख्त हिदायत भी दी जाए की उस फिल्म/किताब मेँ कुछ आलोचनात्मक नहीँ होना चाहिए ??
सुनो बापू,
सत्य और संयम के सभी प्रयोगों के प्रेत
हर बरस निकल आते हैं अपनी कब्रों से,
भटकते हैं, मूतते हैं उस दीवार पर,
चिल्लाते हैं सेक्स, सेक्स और
खुद ही अपनी सड़ांध से बेहोश हो
सो जाते हैं
बस एक साल के लिए............(एक कविता से ........)
25 साल पहले क्रिकेट के पिछे दिवानगी गजब की थी. जहाँ समय मिला यानी स्कूल की आधी-छूट्टी के समय में भी, जहाँ जगह मिली चाहे वह स्कूल का गलियारा हो और गेंद नहीं तो कपड़े को लपेट कर बनाया गया गोला हो, बेट नहीं तो लकड़ी सही, वह अभी न हो तो खाली हथेली ही सही मगर क्रिकेट खेलते थे. भारत की हार रोने के लिए बहुत थी. यह स्थिति थी हमारी और आज की पीढ़ी को देखता हूँ वह क्रिकेट में कम फूटबोल व अन्य खेलों में रूची ले रही है तो अच्छा लगता है. हाँ अपना क्रिकेट का बुखार तो कब का उतर चुका. धन्यवाद अजहरूद्दिन एंड पार्टी.
॰
माँ
. . . . . . . . . . . . .
माँ रूनियाँ है माँ मुनियाँ है
झुनझुना की झुनझुनियाँ है
माँ शक्ति है माँ भक्ति है
वो ममता की अभिव्यक्ति है
माँ प्यारी है माँ न्यारी है
माँ से ही दूनियाँदारी है
माँ दौलत है माँ पुँजी है
आँचल में ममता गुँजी है
माँ रोटी है माँ चावल है
देती खुशियाँ वो पल पल है
माँ धुप भी है माँ छाँव भी है
माँ वैतरणी की नाव भी है
माँ कोमल है माँ शीतल है
वो हर कठिनाई की हल है
माँ भाषा है माँ बोली है
माँ से दीपावली होली है
माँ दीपक है माँ बाती है
वो स्नेह सदा बरसाती है
माँ चुड़ी है माँ साड़ी है
जीवन की अद्भुत गाड़ी है
माँ थाली भी माँ प्याली भी
गुड़िया के होंठ की लाली भी
माँ चंदन है माँ टीका है
बिन उसके जीवन फीका है
माँ स्याही है माँ पन्ना है
हर बचपन की तमन्ना है
माँ चाहत है और चाह भी ही
जीवन जीने की राह भी है
माँ पगली है दीवानी है
माँ की अनगिनत कहानी है
माँ सिक्का और अठन्नी भी
होंठों की हँसी चौवन्नी भी
माँ नदियाँ है माँ गागर है
ममता की गहरी सागर है
माँ चुल्हा है माँ काठी है
माँ ही बचपन की लाठी है
माँ भुख भी है माँ प्यास भी है
हर जज्ब की वो एहसास भी है
हर रूप मेँ माँ हर रँग में माँ
माँ माँ है माँ है माँ है माँ
@लोक में ऐसे प्रयोग प्रचलित हैं और कोई आवश्यक नहीं कि कहने वाला 'स्त्री' जाति के प्रति कोई पूर्वग्रह रखता हो।
- गिरिजेश भोजपुरिया
सहमत हूं। यहीं देखिये। मुंशी प्रेमचंद की कहानी पूस की रात में हलकू जब खेत में रखवाली करते हुए ठंड के मारे परेशान हो जाता है तो कहता है -
"यह रांड पछुआ न जाने कहाँ से बरफ लिए आ रही है, उठूँ, फिर एक चिलम भरूँ"
इस तरह के कई शब्द हैं जो किसी को जान बूझकर हत करने की भावना से नहीं कहे जाते, बस लोक प्रचलन में आ गये हैं।
("शब्द चर्चा ग्रुप" में रांड, रंडापा, रंडुआ पर चली बहस का अंश)
https://groups.google.com/forum/?fromgroups#!topic/ shabdcharcha/MKotdrSKm5I[1-25]
इज्जत की रोटी
आलोक पुराणिक
एक बुजुर्गवार बताया करते थे कि घर छोड़कर रेस्ट्रॉन्ट में खाने-पीने वो
लोग जाते हैं, जिनकी पत्नियां उन्हें घर में इज्जत के साथ खाना नहीं देतीं।
सो बंदा बाहर रेस्ट्रॉन्ट में वेटरों को टिप वगैरह देकर इसके बदले उनसे
इज्जत हासिल करने जाता है।
अब बाहर और खासकर धांसू रेस्ट्रॉन्ट्स में भी खाकर इज्जत ना मिल रही है,
ना बच रही है। भीख मांग कर खाने में और धांसू रेस्ट्रॉन्ट्स में खाने में
बस यही फर्क रह गया है कि भीख मांगकर खाने में बेइज्जती कम होती है, सिर्फ
एक ही लाइन में लगकर खाना मिल जाता है। जो देना है, एक बार में दे दे।
धांसू रेस्ट्रॉन्ट में तीन-तीन, चार-चार बार लाइनों में लगो। पहली लाइन में
लगकर बताओ क्या खाना है, रकम थमाओ, रसीद कटाओ। दूसरी लाइन में लगकर रसीद
दिखाओ और खाना सप्लाई सेंटर से खाना पकड़ो। तीसरी-चौथी लाइन में तब लगिए
अगर रोटी तीन के बजाय चार खानी हो, तो दोबारा रकम देकर रसीद कटाओ। इतनी
लाइनों में लगकर शर्मदार बंदा सोचने लगता है कि अपने पैसे खर्च करके किसी
राहत शिविर में खाना खा रहे हैं।
उग्र युवा पीढ़ी को
धैर्य, संयम की शिक्षा देने की एक तरकीब मैंने यह सोची है कि बेट्टे ऐसे
रेस्ट्रॉन्ट्स में भरपेट खाना खाकर दिखाओ। इससे बंदे की चमड़ी मोटी हो जाती
है, वह दुनिया को झेलने के काबिल हो जाता है। इस संबंध में रेस्ट्रॉन्ट दो
तरकीबें अपनाते हैं। तरकीब नंबर एक तो यह कि रेस्ट्रॉन्ट वाले आपकी सीट के
पास व्यग्र, प्रतिबद्ध खाने के इच्छुक सीटाकांक्षी छोड़ देते हैं, जो ऐसे
घूरते हैं कि अबे उठ, कित्ता खाएगा बे। तरकीब नंबर टू, यह कि सीटाकांक्षी
रेस्ट्रॉन्ट के गेट से बाहर लाइन में रहते हैं और झांक-झांककर अंदर वालों
को बताते रहते हैं कि उठो तुम्हारी वजह से हम भूखे हैं। अपनी ही रकम से
खरीदा गया खाना अपराध सा लगता है।
मैं अपनी पत्नी को
समझाता हूं कि बाहर खाना बहुत बेइज्जती का काम हो गया है अब। पत्नी साफ
करती है, जमाना बदल गया है, अब इज्जत या रोटी में से किसी एक को ही चुन
सकते हो।
इज्जत की रोटी
आलोक पुराणिक
एक बुजुर्गवार बताया करते थे कि घर छोड़कर रेस्ट्रॉन्ट में खाने-पीने वो लोग जाते हैं, जिनकी पत्नियां उन्हें घर में इज्जत के साथ खाना नहीं देतीं। सो बंदा बाहर रेस्ट्रॉन्ट में वेटरों को टिप वगैरह देकर इसके बदले उनसे इज्जत हासिल करने जाता है।
अब बाहर और खासकर धांसू रेस्ट्रॉन्ट्स में भी खाकर इज्जत ना मिल रही है, ना बच रही है। भीख मांग कर खाने में और धांसू रेस्ट्रॉन्ट्स में खाने में बस यही फर्क रह गया है कि भीख मांगकर खाने में बेइज्जती कम होती है, सिर्फ एक ही लाइन में लगकर खाना मिल जाता है। जो देना है, एक बार में दे दे। धांसू रेस्ट्रॉन्ट में तीन-तीन, चार-चार बार लाइनों में लगो। पहली लाइन में लगकर बताओ क्या खाना है, रकम थमाओ, रसीद कटाओ। दूसरी लाइन में लगकर रसीद दिखाओ और खाना सप्लाई सेंटर से खाना पकड़ो। तीसरी-चौथी लाइन में तब लगिए अगर रोटी तीन के बजाय चार खानी हो, तो दोबारा रकम देकर रसीद कटाओ। इतनी लाइनों में लगकर शर्मदार बंदा सोचने लगता है कि अपने पैसे खर्च करके किसी राहत शिविर में खाना खा रहे हैं।
उग्र युवा पीढ़ी को धैर्य, संयम की शिक्षा देने की एक तरकीब मैंने यह सोची है कि बेट्टे ऐसे रेस्ट्रॉन्ट्स में भरपेट खाना खाकर दिखाओ। इससे बंदे की चमड़ी मोटी हो जाती है, वह दुनिया को झेलने के काबिल हो जाता है। इस संबंध में रेस्ट्रॉन्ट दो तरकीबें अपनाते हैं। तरकीब नंबर एक तो यह कि रेस्ट्रॉन्ट वाले आपकी सीट के पास व्यग्र, प्रतिबद्ध खाने के इच्छुक सीटाकांक्षी छोड़ देते हैं, जो ऐसे घूरते हैं कि अबे उठ, कित्ता खाएगा बे। तरकीब नंबर टू, यह कि सीटाकांक्षी रेस्ट्रॉन्ट के गेट से बाहर लाइन में रहते हैं और झांक-झांककर अंदर वालों को बताते रहते हैं कि उठो तुम्हारी वजह से हम भूखे हैं। अपनी ही रकम से खरीदा गया खाना अपराध सा लगता है।
मैं अपनी पत्नी को समझाता हूं कि बाहर खाना बहुत बेइज्जती का काम हो गया है अब। पत्नी साफ करती है, जमाना बदल गया है, अब इज्जत या रोटी में से किसी एक को ही चुन सकते हो।
देखा है कई बार सूरत बदल-बदल के,
नासमझ है आइना,वो नहीं बदलता !
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे
..फ़राज़
वे जो अब हिन्दी ब्लॉग जगत की हलचल हुआ करते थे अब कहीं नहीं दिखते,किस बियाबान में खो गए?
कैसे होंगे वे लोग? ईश्वर न करे उनके साथ कोई अनहोनी न हुई हो ...
वे यहाँ भी तो नहीं दिखते :-( फानी दुनिया में कोई निशानी भी नहीं उनकी!
मिज़ाज़ उनका कभी समझा नही जाता,
कभी खुद में,कभी दुनियां मे नजर आते हैं,
मुझमें शामिल हैं मेरी तनहाई की तरह...
मुझसे मिलने भी वो महफ़िल में आते हैं....:)
हमने तो सुना था, कि - सिर्फ... सरकार उनकी है ?
पर,
यहाँ तो -
सारा मुल्क ...
उनके .......... बाप की जागीर हमको लग रहा है ??
उमरगुल की बत्ती गुल......अफरीदी को एक्सरे कराना पड़ेगा.......एक-दो और चोटिल पाकिस्तान के...........कोहली, प्यारे कोहली........अपने पड़ोसियों के साथ प्यार से पेश आना था ना.......इतना क्यों मारा...... ;)
नाटककार, आलोचक, कवि और राजनेता साथी शिवराम की द्वितीय पुण्य तिथि पर आज साँय आशीर्वाद हॉल कोटा में श्रद्धांजलि सभा व परिचचर्चा का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के आरंभ में 'विकल्प' अ.भा. जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा के राष्ट्रीय अध्य़क्ष डॉ. रविन्द्र कुमार 'रवि', महामंत्री महेन्द्र 'नेह' साथियों के साथ गीत 'साथी मिल के चलो गाते हुए ....
एक जंगल था । गाय, घोड़ा, गधा और बकरी वहाँ चरने आते थे । उन चारों में मित्रता हो गई । वे चरते-चरते आपस में कहानियाँ कहा करते थे । पेड़ के नीचे एक खरगोश का घर था । एक दिन उसने उन चारों की मित्रता देखी ।
खरगोश पास जाकर कहने लगा - "तुम लोग मुझे भी मित्र बना लो ।"उन्होंने कहा - "अच्छा ।" तब खरगोश बहुत प्रसन्न हुआ । खरगोश हर रोज़ उनके पास आकर बैठ जाता । कहानियाँ सुनकर वह भी मन बहलाया करता था ।
एक दिन खरगोश उनके पास बैठा कहानियाँ सुन रहा था । अचानक शिकारी कुत्तों की आवाज़ सुनाई दी । खरगोश ने गाय से कहा - "तुम मुझे पीठ पर बिठा लो । जब शिकारी कुत्ते आएँ तो उन्हें सींगों से मारकर भगा देना ।"
गाय ने कहा - "मेरा तो अब घर जाने का समय हो गया है ।"तब खरगोश घोड़े के पास गया । कहने लगा - "बड़े भाई ! तुम मुझे पीठ पर बिठा लो और शिकारी कुत्तोँ से बचाओ । तुम तो एक दुलत्ती मारोगे तो कुत्ते भाग जाएँगे ।"घोड़े ने कहा - "मुझे बैठना नहीं आता । मैं तो खड़े-खड़े ही सोता हूँ । मेरी पीठ पर कैसे चढ़ोगे ? मेरे पाँव भी दुख रहे हैं । इन पर नई नाल चढ़ी हैं । मैं दुलत्ती कैसे मारूँगा ? तुम कोई और उपाय करो ।
तब खरगोश ने गधे के पास जाकर कहा - "मित्र गधे ! तुम मुझे शिकारी कुत्तों से बचा लो । मुझे पीठ पर बिठा लो । जब कुत्ते आएँ तो दुलत्ती झाड़कर उन्हें भगा देना ।"गधे ने कहा - "मैं घर जा रहा हूँ । समय हो गया है । अगर मैं समय पर न लौटा, तो कुम्हार डंडे मार-मार कर मेरा कचूमर निकाल देगा ।"तब खरगोश बकरी की तरफ़ चला ।
बकरी ने दूर से ही कहा - "छोटे भैया ! इधर मत आना । मुझे शिकारी कुत्तों से बहुत डर लगता है । कहीं तुम्हारे साथ मैं भी न मारी जाऊँ ।"इतने में कुत्ते पास अ गए । खरगोश सिर पर पाँव रखकर भागा । कुत्ते इतनी तेज़ दौड़ न सके । खरगोश झाड़ी में जाकर छिप गया । वह मन में कहने लगा - "हमेशा अपने पर ही भरोसा करना चाहिए ।"
सीख - दोस्ती की परख मुसीबत मे ही होती है।
सिगरेट और जिंदगी में वाकई बहुत अंतर नहीं है. यह भी धीरे-धीरे जल कर बुझ जाती है और वह भी. इसे भी जब बुझाना चाहो तो कोई ना कोई चिंगारी बाकी दिख ही जाती है और उसके साथ भी यही हाल है.
वाह बहुत खूब भईया !
जवाब देंहटाएंशुक्रिया रत्नेश भाई :)
हटाएंफिर से मेरा स्टेटस नहीं पोस्ट किये ना आप? :-(
जवाब देंहटाएंअरे तुम्हारा बात कोई है ऐसा जो न माना जाए बच्चा लाल । देखो पकड के ले आए तुम्हारा स्टेटस भी :) :)
हटाएंलभ यू भैया.. :)
हटाएं:)लव यू टू बच्चा लाल
हटाएंआप आए,बहार आई .....हम सोच रहे थे कि ई फेसबुकवा खाली-खाली क्यों है....:-)
जवाब देंहटाएंशुक्रिया माट साब ..जल्दी ही लौटेंगे हम पुरानी रफ़्तार में
हटाएं@ मयंक जी
जवाब देंहटाएं"वाटर" से शुरू हुआ अब तक जारी है , वाराणसी में अब ये सब कुछ ज्यादा ही हो रहा है लगता है कोई अपनी राजनैतिक जमीन पक्का कर रहा है और शहर का माहौल ख़राब :(
@ संजय जी
उस दीवानगी में कोई कमी नहीं है बस उस समय के लोग बड़े हो गये है अब नये बच्चे इस जूनून की जद में है :)
@ सतीश जी
हलकू अनपढ़ गांव का किसान था उसके जैसा व्यवहार उन पढ़े लिखे समझदार विद्वानो और चीजो को अच्छे से समझने वालो को नहीं करना चाहिए , उस पढाई लिखाई समझदारी आदि आदि का क्या फायदा जो उनको इतना ना समझा सके की समाज में प्रचलित जो पुराने शब्द ठीक नहीं है और अब उसे प्रचलन से बाहर कर देना चाहिए , और इसकी शुरुआत हलकू को नहीं ब्लॉग में बैठे विद्वानों को करनी चाहिए :(
झा जी मेरी टिप्पणी उम्मीद है वापस लोगों तक पहुँच जाएगी |