फेस
बुक पर अपनी पुरानी हरकतें, अपनी वाल पोस्ट और अपने कमेंट्स देख कर अपनी
बेवकूफी पर हँसी भी आती है और शर्मिंदगी का अहसास भी होता है.
ये मुई फेस बुक भी असल जिन्दगी का रुप अख्तियार कर रही है.
अपने ही कर्म और अपना ही लेखन पीछा करते हैं, शर्मिन्दा करते हैं, दुख का कारण बनते हैं..
मेरी नज़र में तो लेखन ही लेखक का चरित्र निर्धारण भी करते हैं...काफी हद तक!!
इसी से सीख लेकर अब भी सुधर जायें तो भविष्य में सुकून मिले. वर्तमान ही भविष्य में भूत होगा.
कहीं चैन नहीं- जाऊँ तो जाऊँ कहाँ!!!!
(तस्वीर: खुद से शर्मिंदा, बेचैन और लजाते हुए समीर लाल 'समीर')
आपका आभार ... इन चेहरों की बात को आपने अपने ही अंदाज़ में हम तक पहुंचा दिया !
जवाब देंहटाएंये अन्दाज़ भी खूब रहा।
जवाब देंहटाएंये हुई न "फेस चर्चा"....:)
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर संकलन अजय जी ।
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