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समझ को समझ के भी ना समझना ,ऐसे लोगों की समझ को समझ पाना और उनकी नासमझी को ना समझ कर समझदार समझना वाकई समझ को न समझ पाना है ,ऐसा मेरी तो समझ में आ गया है ..... निवेदिता
भावनाओं का उफान और जरूरतों के किनारे
लहरें जीवन के इसी किताब को बांचती हैं
हम उठते हैं गिरते हैं और शांत हो जाते हैं
समन्दर की तरह.....समन्दर हम सबके अन्दर होता है....रत्नेश
लहरें जीवन के इसी किताब को बांचती हैं
हम उठते हैं गिरते हैं और शांत हो जाते हैं
समन्दर की तरह.....समन्दर हम सबके अन्दर होता है....रत्नेश
जापानी : मुझे नालंदा जाना है कैसे जाऊँ ?
भारतीय : ट्रैन पकड़ कर बख्तियारपुर जंक्शन पहुँचिये वहाँ से नालंदा के लिए गाड़ी बुक कर लीजिये
जापानी : स्टेशन का नाम बख्तियारपुर क्यों ?
भारतीय : स्टेशन का नाम बख्तियार खिलजी के नाम पर है
जापानी : ( चौकते हुए ) वही बख्तियार खिलजी जिसने नालंदा विश्वविद्यालय जला दिया और लाखों हिन्दुओं तथा बौद्धों की हत्या कर दी ?
भारतीय : ( शर्म से ) हाँ वही
जापानी : आश्चर्य से, हमलावरों , हत्यारों का ऐसा सम्मान ?
भारतीय : 🙄
भारतीय : ट्रैन पकड़ कर बख्तियारपुर जंक्शन पहुँचिये वहाँ से नालंदा के लिए गाड़ी बुक कर लीजिये
जापानी : स्टेशन का नाम बख्तियारपुर क्यों ?
भारतीय : स्टेशन का नाम बख्तियार खिलजी के नाम पर है
जापानी : ( चौकते हुए ) वही बख्तियार खिलजी जिसने नालंदा विश्वविद्यालय जला दिया और लाखों हिन्दुओं तथा बौद्धों की हत्या कर दी ?
भारतीय : ( शर्म से ) हाँ वही
जापानी : आश्चर्य से, हमलावरों , हत्यारों का ऐसा सम्मान ?
भारतीय : 🙄
*इस कांग्रेस के कारण न जाने, कहाँ कहाँ, और कब तक शर्मिंदा होना पड़ेगा, हमें।*
#70 साल का शर्मनाक इतिहास बख्तियारपुर_जंक्शन......
सबकुछ अपने विश्वास की बात है, विश्वास है तो है,
नहीं है तो बस नहीं है ...
नहीं है तो बस नहीं है ...
यह हमारा दुर्भाग्य ही हैं कि आज के युवा 'काकोरी' कहने पर कबाबों की बात करते हैं|
अपने स्वाधीनता संग्राम का असली इतिहास न पढ़ाये जाने का यह परिणाम हैं |
जो लोग आपसे किसी भी रूप में साथ जुड़े हैं उनका दिल से आभार मानिए और जो आपको पसंद नहीं करते, उनका होना या न होना क्या मायने रखता है... ज़िन्दगी कुंठाओं और शिकायतों में बिताने को बहुत छोटी है।
- इरा टाक
- इरा टाक
नवीं क्लास के एक छात्र अजय ने देखा, उसकी क्लास का एक लड़का विनय, एक लड़की शोभा को थप्पड़ लगाए जा रहा है।अजय ने आव देखा ना ताव खींचकर एक झापड़ उस विनय को लगा दिया। तब तक टीचर भी आ गए थे, पता चला शोभा ने विनय की शिकायत की थी। और उसी का गुस्सा विनय, शोभा को पीटकर निकाल रहा था। टीचर ने अजय से पूछा," तुमने विनय को क्यों थप्पड़ मारा ? "
अजय का जबाब था, " मैं चौथी क्लास में था तो मैंने एक लड़की को मारा था। मेरी माँ के पास शिकायत गई थी और माँ ने एक घण्टे तक मुझे डाँटा था और समझाया था कि लड़कियों पर हाथ नहीं उठाते, उनकी रेस्पेक्ट करते हैं। वे अगर किसी मुसीबत में हो तो उनकी मदद करते हैं। मैंने देखा कि शोभा को विनय मार रहा था,इसीलिए मैंने विनय को थप्पड़ लगाया ।"
ये सुनकर टीचर ने बिना डांटे,उसे जाने के लिए कह दिया।
ये सुनकर टीचर ने बिना डांटे,उसे जाने के लिए कह दिया।
ये होता है कच्ची उम्र में समझाए जाने का असर। काश सारी मायें, अपने बेटों को ऐसी शिक्षा दें और बेटे भी उसपर अमल करें तो लड़कियों के लिए यह दुनिया थोड़ी सी आसान हो जाये।
असहमति से सहमत होना एक जुमला है जो प्रायः बहस मुबाहिसों मे एक पक्ष बार बार उछालता है, दुहाई देता है और इस वृत्ति को उच्च बौद्धिकता और शिष्टाचार से जोड़ता है। मगर क्या इस वृत्ति की भी कोई सीमा नहीं होनी चाहिए?
कहते हैं कि वैचारिक हिंसा हिंसा का क्रूरतम रुप है। भारतीय दर्शन की एक विचारधारा अहिंसा को परमो धर्मः कहती आई और स्यादवाद, बुद्ध दर्शन और गांधीवाद से यह और भी प्रभावी हुई। गांधी जी के दूसरे गाल पर भी तमाचा खाने की उक्ति प्रायः बतौर मनोविनोद के ही उद्धृत की जाती है। दरअसल अहिंसा हारे का हरिनाम है। यह तब तो ठीक है जब निरीहता से उबरने का कोई विकल्प न हो। मगर यह कतई उचित नहीं है जब आपकी सक्षमता के बावजूद भी कोई आपको अपमानित कर जाय।
अहिंसावाद ने भारत का बड़ा नुकसान भी किया है। इस विचारधारा को सही परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरुरत है। सच तो यह है कि अनुचित का प्रबल विरोध करने का भारत का एक गौरवशाली अतीत रहा है। कितने संग्राम हुये अपनी अस्मिता बचाने को। महाभारत का संदर्भ देखिये। गीता अपने अधिकार के लिये हिंसा को उचित ठहराती है। श्रीकृष्ण बार बार अर्जुन को ललकारते हैं उत्तिष्ठ अर्जुन युद्धाय कृत निश्चयS.. मगर बुद्ध के आगमन के बाद आत्मरक्षा के लिये भी हिंसा को हेय बनाया गया।
उधर विदेशी आक्रांता भारत में एक एक आकर हमें लूट रहे थे, भारतीय अस्मिता से खिलवाड़ कर रहे थे मगर बौद्धों के समूह बुद्धं शरणं गच्छामि का उद्घोष करते हुये देश की गिरवी होती प्रतिष्ठा को तटस्थ होकर देख रहे थे। यह क्लैव्यता यह कापौरूषीय व्यवहार हमें निरन्तर गुलामी के अन्धकार में ढकेलता रहा। यह वही अन्तर्धारा है जो असहमत से भी सहमति का गुहार लगाकर चालाकी से अपना वर्चस्व बनाये रखना चाहती है।
कई गुमराह युवा ऐसे विचारकों की जाल में फंसते हैं जिनमें ग्रामीण पृष्ठभूमि के स्वप्नदर्शी आदर्शवादी युवाओं की संख्या अधिक है। जेएनयू जिनका गढ़ है। अब यहां नारा लगता है देश के हजार टुकड़े होंगे - इससे सहमत हुआ जा सकता है? हर घर से इस्लामी आतंकवादी निकलेंगे? सहमत हैं आप? अरे इनकी ऐसी की तैसी? इनका क्रूर दमन ही उचित है। अभी धारा 370 के प्रावधानों को हटाने के बाद यह टुकड़े गैंग फिर जेएनयू कैंपस में निशाचरी गतिविधियों में लिप्त हो गया?
आखिर कौन लोग हैं ये? इनके मां बाप भी बिचारे किसान मजदूर अपने बच्चों की कारगुजारियों से या तो बेखबर हैं या फिर अपने लाल के साहबी ठाठ-बाट से लाचार। कन्हैयाकुमार ऐसी जमात के अगुआ हैं। ऐसे लोगों पर दिल्ली सरकार अपने निहित एजेन्डे के तहत किसी भी कार्यवाही से गुरेज कर रही है। इसका खामियाजा अरविंद केजरीवाल की सरकार को मिलना तय है।
आज भारत की असली आजादी के जश्न का मौका है। इससे जो असहमत हैं उनसे आखिर हम क्यों सहमत हों? वैसे अभी भी पीओके और अक्साई चीन को भारतीय भूभाग में मिलाये जाने तक हमारी आजादी अधूरी है। मगर एक दृढ़ इच्छा राजनीतिक इच्छाशक्ति से असंभव सा भी सहज संभव है यह साबित हो गया है। आखिर मोदी हैं तो मुमकिन है नारा सचमुच एक हकीकत ही बन गया है।
आप देश विरोधी, राष्ट्र विरोधी बात करेंगे हम कतई सहमत नहीं होंगे। हम आज मुंह तोड़ जवाब देने की हैसियत में हैं तो किसी भी मुगालते में न रहें - हम करारा जवाब देंगे। आपसे कदापि सहमत नहीं होंगे। आप भले ही नाक रगड़ जा |
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