तो आज तुमने ये कहा …………

कुछ लोगों का कहना है कि उनका मन फेसबुक से ऊब चुका है...
और ये बताने के लिए वो........दिनभर फेसबुक पर ही रहते हैं.....:)))))
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ज़मान: सख्त कम आज़ार है बजान-ए-'असद'
वगर्न: हम तो तवक़्क़ो' ज़ियाद: रखते हैं !
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कुछ किस्मत के साँड जगत में होते हैं
संघर्षों के जुए न जाते जोते हैं
बेनकेल वो घूम घूम कर खेतों में
खाते हैं, जो दुनियावाले बोते हैं
-बच्चन
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स्मृतियाँ बदलाव को
नकारने की आदी हैं
और जीवन बदलाव का .....
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यहाँ-वहाँ छाये हैं शातिर, सज्जन बेचारे लगते हैं
प्रतिभाशाली लोग यहाँ पर किस्मत के मारे लगते हैं
मुस्काते हैं आज माफिया क्या समाज, क्या लेखन में
अच्छे लेखक और विचारक हर बाज़ी हारे लगते हैं
चापलूस लोगों के हिस्से अब तो सारा वैभव है
ऐसे लोगों की मुट्ठी में कैद यहाँ तारे लगते हैं
तुम तो अच्छे हो लेकिन क्या इससे कोई बात बने
आज अधिकतर बुरे लोग ही हमको उजियारे लगते हैं
बहुत हो गया दब न सकेगी भीतर की ज्वाला 'पंकज'
देखो-समझो क्यों बस्ती में बार-बार नारे लगते हैं
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रिमझिम गिरे सावन ...... सुलग सुलग जाए मन ....!
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अपनी यादों से कहो इक दिन की छुट्टी दें मुझे
इश्क के हिस्से में भी....... इतवार होना चाहिये
Munawwar rana
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कविता लिखना किसी मानसिक पीड़ा से गुजरना होता है। एक बड़े कवि ने मुझे बताया है। क्या वाकई!!
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शहरों में आज-कल बारिश भी वार्ड स्तर पर होने लगी है . किसी एक वार्ड में बादल बरस रहे हों ,तो ज़रूरी नहीं कि पूरे शहर में बारिश हो रही होगी . .उस दिन देर रात काम खत्म कर दफ्तर से निकलने ही वाला था कि बौछारें पड़ने लगी . गाड़ी में एक किलोमीटर तक बारिश का नजारा दिखा ,लेकिन उसके बाद दो किलोमीटर तक पूरी सड़क सूखी पड़ी थी. घर के नज़दीक पहुंचा तो मोहल्ले में रिमझिम बरसात हो रही थी. एक दिन तो और भी दिलचस्प नजारा देखने को मिला - ट्राफिक सिग्नल पर गाड़ी रूकी तो सबने देखा -चौराहे के उस पार बारिश हो रही है और इस पार है तेज धूप और सूखी सड़क .दिनों-दिन बिगड़ते पर्यावरण की वज़ह से अब शहर भी वृष्टि छाया के घेरे में आते जा रहे हैं .हालत वाकई चिंताजनक है,लेकिन चिंतित कौन है ? सब मजे में हैं और मौन हैं !
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जब नींव-रहित,
कच्चे-पक्के
संबंधों के अलाव,
भौतिक रस-विलास के
सौजन्य से......
बढ़-चढ़ कर
फैलने लगते हैं,
तब......
दूर से देखते हुए
ठोस,
भावनात्मक
रिश्तों का वज़ूद,
क्रमश:
खोने लगता है.......
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जिन भी संपादकों को नए और युवा पत्रकार ''अनपढ़'' लगते हैं, वे खुद में झांक कर एक बार जरूर देखें। क्या वो वाकई संपादक कहलाने लायक बचे हैं?
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हे केदार .......
यदि तुम, खोल देते जटाओं के द्वार
समां लेते उनमे उफनती नदियों के धार
तुम तो विष पीने वाले नील कंठ हो
फिर क्यों नहीं डूबतों को लिया उबार
कैसे मौन हो देखते रहे यह हाहाकार
तुम्हारे भवन को सुरक्षित देख ...
लोगों की तुमपर आस्था और गहरी हुई है
किन्तु, मैं असमंजस में हूँ ......
तुम्हारे सुरक्षित रहने पर आश्वस्त होऊं
या अनगिन मानवों के मरने पर शोक मनाऊं ?
सूतक मिटने पर तुम फिर पूजे जाने लगे हो
किन्तु मेरे मन में छाया सुतक मिटता ही नहीं !!
~s-roz~
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उम्र बेहिसाब है,
थोड़ी सी शराब है.
ज़िन्दगी की चाह में,
ज़िन्दगी ख़राब है.
तुम नहीं तो कुछ नहीं,
सीधा सा हिसाब है.
इसकी बात क्यूँ सुनें,
वक्त क्या नवाब है?
आईने से पूछो तो,
"मूड क्यूँ खराब है?"
मौत ग़म के शेल्फ़ की,
आख़िरी किताब है.
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जो कहतें हैं ज़िन्दगी बिकती नहीं..... उन्हें
दवाइयों की दुकानों पे लगी कतारें दिखाओ
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नीम ने छोडी है जब से अपनी चौपाल,
गांव के गलियारे जुहू चौपाटी हो गए।
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आषाढ़ी आकाश से,टपकी पहली बूँद
कोई जीवन पी गया,छत पर आँखें मूँद
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एक बेहतरीन इंसान अपनी जुबान से ही पहचान जाता है, वर्ना अच्छी बातें तो दीवारों पर भी लिखी होती हैं।
बढिया, ये तो फ़ेसबुक-चर्चा टाईप होगई, अभिनव प्रयोग.
जवाब देंहटाएंरामराम.
शुक्रिया ताऊ जी
हटाएंare....vaah.....ihaan to bade log chhaye hue hain....chal ham bhi inhen dekhne aaye hue hain....sab ko dekh liya ab jab jaate hain....apni katha ab ham bhi fes buk par jakar sunate hain....!!
जवाब देंहटाएंअवश्य भूतनाथ जी
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