-
Arun Chandra Roy
यदि हम वाकई उत्तराखंड के हादसे से चिंतित हैं, विचलित हैं तो बिजली की खपत तुरंत कम कर दीजिये ताकि देश को नदियों पर बाँध बनाने की जरुरत ही न पड़े . उर्जा आधारित अर्थव्यवस्था से प्रकृति को अंततः नुक्सान ही है. अभी उत्तराखंड है , कल हिमाचल होगा परसों कश्मीर .... अपना ए सी बंद कीजिये, टीवी वाशिंग मशीन सब रोकिये . बल्ब भर से काम चलाईये . सोच कर देखिये, कल यदि टिहरी बाँध को कुछ हुआ तो दिल्ली के पांच मंजिले मकान तक डूब जायेंगे . यह सबसे उपयुक्त समय है स्वयं जागने का और सरकारों को जगाने का. सरकारी दफ्तरों, कारपोरेट कार्यालयों , बंगलो में सेंट्रली ए सी के खिलाफ विरोध कीजिए .. वरना राजधानी और शहरो की सुविधों की कीमत पहाड़ो को चुकानी होगी .
-
दिनेशराय द्विवेदी
"साम्यवादी शासन" शब्द को सारी किताबो से मिटा दो। ऐसी कोई चीज नहीं होती। यह शब्द पूंजीवादी सिद्धान्तकारों की देन है। सारे साम्यवादी विचारक पूंजीवाद से सर्वहारा तानाशाही के दौर से गुजरते हुए साम्यवादी समाज की ओर जाने की बात करते हैं। वर्गीय समाज में कोई भी जनतंत्र अधूरा सच है। उस की कोई भी व्यवस्था शोषक वर्गों के लिए जनतंत्र और शेष के लिए तानाशाही होती है। कोई भी कथित जनतंत्र जनता का जनतंत्र नहीं हो सकता है, और न है। पूंजीवाद के सामंतवाद के साथ समझौते के दौर में पूंजीवाद ने स्वयं अपने विकास को अवरुद्ध किया है। इस कारण अब पूंजीवाद के विकास और सामन्तवाद को पूरी तरह ध्वस्त करने की जिम्मेदारी भी सर्वहारा और उस के मित्र वर्गों के जिम्मे है। यही कारण है कि "जनता की जनतांत्रिक तानाशाही" जैसीा राज्य व्यवस्था का स्वरूप सामने आया है। राज्य के इस स्वरूप मे उपस्थित 'पूंजीवादी सामंती व्यवस्था के शोषकों पर जनता के श्रमजीवी वर्गों की तानाशाही" को पूंजीवाद संपूर्ण जनता पर तानाशाही कहता है। आज बहुत लोग यही कह रहे हैं जो नयी बात नहीं है। यह पूंजीवादी प्रचारकों की ही जुगाली है। दुनिया में कहीं भी साम्यवादी वर्गहीन समाज स्थापित नहीं हुआ है। पर उस की स्थापना उतनी ही अवश्यंभावी है जितना की इस दुनिया में पूजीवाद का वर्चस्व स्थापित होना अवश्यंभावी था।
-
Swati Bhalotia
तुम्हारे शब्दों के बीच होती है सड़कें
मैं बसा लेती हूँ शहर पूरा
उन शहरों में होते हैं तुम्हारे सामीप्य से भरे घर
तुम्हारे शब्दों के बीच होती हैं नौकाएँ
मैं बाँध लेती हूँ नदी पूरी
उन नदियों में होती है रवानगी तुम तक पहुँच आने की
तुम्हारे शब्दों के बीच होती हैं सीढियाँ
मैं चढ़ती जाती हूँ पेड़ों से भी आगे
उन पत्तों के बीच होते हैं ताज़ा लाल सेब जिन्हें पीछे छोड़ देती हूँ मैं
तुम्हारे शब्दों के बीच होता है प्रेम-स्पर्श
मैं भर लेती हूँ हर हिस्सा अपना
उन पलों में बरस जाती है सिहरन तुम्हारे होठों के पँखों पर
-
Kajal Kumar
मध्यवर्ग के पास जैसे-जैसे पैसा आ रहा है, धार्मिक पर्यटन खूब बढ़ रहा है.
लोग पहले , जीवन में एक बार हो आने की अभिलाषा पालते थे, अब हर साल चले रहते हैं
Shashank Bhardawaj
चुन्नू की माय नहीं रही..छोर गयी हमर साथ भगवान शंकर के द्वार पर...
बोल था इ 65 साल की उमर मे कहा जाओगी केदारनाथ..बहुत पहाड़ है...दिक्कत होगी..नहीं मानी जिद कर गयी ...
हम तो बाबा के दर्शन को जाएँगी ही...
का करते
दूनो बुढा बुढही चले...
बोल वहा खच्चर ले लेते हैं...पर न मानी बोली तीरथ यातरा पर आये हैं...बाबा अपने पंहुचा देंगा ...शंकर..शंकर का जाप करते करते चढ़ ही गए...भगवान के द्वारे....
केदारनाथ मंदिर मे दर्शन कर ही रहे थी की...पता नहीं का हुवा.कहा से जलजला आया....
बह गयी...बहुत कोशिश की हाथ न छूटे...छूट गया..........................
चली गयी........................................................
अब हमहू जयादा दिन के नहीं हैं..चले जायेंगे ...भगवान शंकर के ही पास..............
उस बुढिया के बिना मन नहीं लगता है बिटवा...........................
Sunil Mishra Journalist
पहाड़, जंगल काट कर घर बनाते है...नदी, तालाब, समंदर पाट कर घर बनाते है...
ऐसे घर से बेघर होना ही पड़ता है........................दुनिया भर के शास्त्र बताते है.
Prem Chand Gandhi
अगर देश के तमाम मंदिरों में बेवजह जमा पड़े सोने और चांदी के आभूषणों को नीलाम कर देवभूमि उत्तराखण्ड के पुनर्निर्माण लगा दिया जाए तो किसी के सामने हाथ फैलाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। आखिर देवी-देवताओं का धन देवी-देवताओं के ही काम नहीं आएगा तो फिर किसके काम आएगा... आस्थावान लोगों को भी इससे शायद ही कोई आपत्ति होगी...
यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि पिछले दिनों राजस्थान के एक प्रसिद्ध मंदिर के प्रबंधन से जुड़े व्यक्ति ने बताया कि मंदिर के पास हज़ारों टन सोना-चांदी है, लेकिन सरकार इसे बेचने नहीं देती।
Rajbhar Praveen Kumar
इंसान अकेलापन भी तभी महसूश करता है जब उसे किसी के साथ रहने की आदत पड़ चुकी होती है.....!!
सतीश पंचम
डीडी नेशनल पर पहाड़ी इलाके में बनी फिल्म नमकीन देख रहा हूँ। नदी और उस पर बने पुल को देख जेहन में फिल्म की बजाय हालिया आपदा कौंध जा रही है कि - यह पुल या इस जैसा पुल भी बह गया होगा, वह दुकान भी :(
Praveen Pandey
काम वही जो मन भाता है,
राग हृदय का गहराता है,
बच्चों को समझो, ओ सच्चों,
लिखा नहीं पढ़ना आता है।
Neeraj Badhwar
मोदी की आलोचना इसलिए हो रही है कि वो उत्तराखंड क्यों गए, राहुल की इसलिए कि वो क्यों नहीं गए। बेहतर यही होगा कि हर नेता प्रभावित इलाके के आधे रास्ते से यू टर्न लेकर लौट आए।
Prashant Priyadarshi
ना किसी की आंख का नूर हूँ , न किसी के दिल का करार हूँ ,
जो किसी के काम ना आ सके , मैं वो एक मुश्त -ए -गुबार हूँ..
Prashant Priyadarshi
ना किसी की आंख का नूर हूँ , न किसी के दिल का करार हूँ ,
जो किसी के काम ना आ सके , मैं वो एक मुश्त -ए -गुबार हूँ..
Ankur Shukla
पुनर्वास का मतलब यह नहीं है कि दान किया और मुह फेर लिया। उजड़ो को बसाने के लिए उनकी दैनिक आमदनी को जिंदा करना होगा। सैलाब आने से पहले ईश्वर की बड़ी कृपा थी इनपर। पर्यटन वृक्ष को हरा -भरा करने के लिए उसकी जड़ को मजबूत करना ज़रूरी हो गया है. जड़ मज़बूत होगी वृक्ष हरा-भरा होगा, तभी तो फल मिलेगा। जय शिव
Amitabh Meet
बरहमी का दौर भी किस दरजा नाज़ुक दौर है
उन के बज़्म-ए-नाज़ तक जा जा के लौट आता हूँ मैं
Arvind K Singh
सेना और अर्ध सैन्य बलों के जवानों को सलाम..
पूरे देश से सेना के लिए दुआएं दी जा रही हैं...हमारी सेना जिन पर भारत के नागरिकों के टैक्स की एक लाख करोड़ रुपया से अधिक राशि हर साल खर्च होती है..कारगिल तो अपनी ही जमीन से पाकिस्तानियों को निकालने की जंग थी..बाकी लंबे समय से सेना आंतरिक सुरक्षा और प्राकृतिक आपदाओं में लोगों की मदद करती है...उनके पास ऐसी आपात हालत से निपटने के लिए तमाम साधन, संसाधऩ और विशेषज्ञता है...बेशक प्राकृतिक आपदाओं में भारतीय सशस्त्र सेनाओं और हमारे अर्ध सैन्य बलों के जवानों ने ऐतिहासिक भूमिका हर मौके पर निभायी है...मैं कई बार सोचता हूं कि अगर ऐसी आपदाओं में सेना और अर्धसैन्यबलों के जवानों को नहीं लगाया जाये आपदा प्रबंधन की राज्य सरकारों की टीम के भरोसे तो शायद ही कोई पीडित बच सकेगा...उत्तराखंडजैसी जगहों पर प्रमुख सामरिक सड़कों को बनाने का काम सीमा सड़क संगठन के जो मजदूर करते हैं, उनकी भूमिकाओं को भी कमतर आंकना ठीकनहीं...उनके बदौलत ही जाने कितने लोग बाहर आ सके है...इन सबको सलाम...
अजय कुमार झा
प्राकृतिक आपदाओं पर कभी किसी का जोर नहीं रहा , और न ही रहेगा , हां जिस तरफ़ से प्राकृतिक आपदाओं की रफ़्तार पूरे विश्व में बढ रही है उससे ये ईशारा तो मिल गया है कि भविष्य की नस्लें ही वो नस्लें होंगी जो अपनी और धरती की तबाही के मंज़र की गवाह बन पाएंगी , खैर ये तो जब होगा तब होगा , मगर जिस देश में अरबों खरबों रुपए के घोटाले होते हों , उस देश के लोगों द्वारा अब तक वो मुट्ठी भर लोग नहीं पहचाने चीन्हे जा सके जो कम से कम ऐसे समय पर जान भी बचा पाने लायक माद्दा नहीं रखते ...साठ साल का समय कम नहीं होता .......अफ़सोस कि भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की जो फ़सल आज लहलहा रही है उसे इसी समाज ने , हमने , आपने अपने हाथों से बोया है ।
इस आपदा के लिए हम ही जुम्मेदार है ....
जवाब देंहटाएंइतने लोग सिर्फ सेर -सपाटे के लिए ही गर्मियों में पहाड़ो पर जाते है ..तीर्थयात्रा तो एक बहाना है ...यदि इन्हें तीर्थ यात्रा पर ही जाना है तो बुजुर्ग लोग जाए ,क्यों हर आदमी अपने साथ अपने बच्चो को भी ले जाता है ,जवान लोग घुमने के इरादे से ही यहाँ जाते है उनमे धार्मिक भावनाए नगण्य होती है ...
पहले के जमाने में लोग दुर्गम पहाड़ी रास्ते पार करके तीर्थाटन को जाते थे, उन्हें वापसी का कोई मोह नहीं होता था ,अगर मर गए तो ईश्वर का स्नेह समझा जाता था ,पर जबसे पर्यटन का चस्का लोगो को लगा है तबसे हर आदमी पहाड़ों पर जाना चाह रहा है ...और इसीकारण वहां अवेध होटल बन रहे है ,पेड़ों की कटाई हो रही है ,वैसे तो गवर्मेन्ट की तरफ से पेड़ काटने की सजा मौत है? पर इसे कितने लोग मानते हैं ?और कितनो को सजा होती है ? यह सब जानते है ..
मैं खुद जब इन धार्मिक स्थलों पर गई तो अपने बच्चो को नहीं ले गई ..क्योकि मेरा मानना है की बच्चे जब बड़े होगे तो खुद ही इन धार्मिक स्थलों की यात्रा कर लेगे ..आज यदि बुजुर्ग लोग ही तीर्थ करने आये होते तो यहाँ का आकंडा बहुत ही कम होता ...
हां आपसे पूरी तरह सहमत हूं दर्शन जी , सह यही है
हटाएंआप यदि फेसबुक के उद्गार ऐसे ही लाते रहें तो संभवतः फेसबुक में जाने की आवश्यकता समाप्त हो जायेगी।
जवाब देंहटाएंअजी आप वहां नहीं जाएंगे तो हम इसे कैसे लाएंगे ???? जाते रहिए प्रभु और आते रहिए प्रभु :)
हटाएं