वो जो , हैं न .........मेरे दोस्त , सब के सब अनमोल , बेशकीमती , ..अपनी बातें , यादें , किस्से, गुस्से , इश्क और रिस्क तक को अपने चेहरों की बोली में कहने पर उतारू हो जाते हैं न तो कसम से ...क़त्ल कर डालते हैं ...कुछ ऐसा ही लगता है ,
हमें उनकी आदत है , उन्हें रोज़ पढ़ते हैं ,
कलम उनकी कातिल है , हम रोज़ मरते हैं ...
आइये ..आप भी मह्सूसिये इस कस्तूरी को ...
चाँद तारे, फूल बगिया, नदिया सागर, मुसाफिर और रास्ता,
कवि हूँ, इन सभी से रहा है मेरा बहुत ही करीब का साबका...
सोचता हूँ कि अगली कविता में तुम्हारे चेहरे का जिक्र करुँ!!
-समीर लाल ’समीर’
क्या लेखन से लेखक के उस समय के मनोभावों का पता चलता है ?
अक्सर जब कोई लेखक या कवि कोई उदासीन सा लेख या रचना लिखता है तो लोग पूछते हैं कि क्या हुआ , सब ठीक तो है , आदि अदि। लेकिन यह आवश्यक नहीं कि लिखते समय लेखक उदास ही हो।
इस सप्ताह हमने भी जिंदगी से जुडी कई समस्याओं पर प्रकाश डाला , लेकिन हास्य व्यंग के माध्यम से , जिसे पसंद भी बहुत किया गया। लेकिन यह कोई नहीं जानता कि इस बीच हमारे तीन करीबी दोस्तों के परिवार में मृत्यु हुई थी , जिनमे से दो तो अकाल ही थीं । इसी तरह हमारे एक मित्र जो लाफ्टर चैम्पियन हैं , उनके पिता की मृत्यु भी तभी हुई थी जब वो टी वी पर लाफ्टर चेलेंज में भाग ले रहे थे। लेकिन उन्होंने सब दुःख दर्द भुलाकर अपना पाठ पूरा किया और आज वे देश विदेश में एक अच्छे हास्य कलाकार के रूप में जाने जाते हैं।
शायद यही एक लेखक / कवि / कलाकार का धर्म होता है कि वह व्यक्तिगत ग़म भुलाकर जनहित में अपना कार्य करता रहे।
कमरिया रही कि जाई
बसिया उछाल मारत हौ!
उछाल मारत हौ, जान मारत हौ
सड़किया बनवा द हे राजा!
बसिया उछाल मारत हौ।
#क्षणिका#
---------------
हंगामा
जन्मसिद्ध अधिकार है,
जनता
लाचार है!
---------------
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
|
क्यों किसी साज़ की आवाज़ का मोहताज बनूँ,
क्यों मुताबिक़ किसी पसंद के अंदाज़ बनूँ,
इससे बेहतर है कि घुल जाऊं किसी झरने में,
शोर के साथ किसी दरिया का आग़ाज़ बनूँ,
खुद पे आ जाए तो पिंजरे को ले के उड़ भागे,
क़ैद से ऊबे परिंदे की वो परवाज़ बनूँ,
लोग लिखते हैं किताबों में जहां के क़िस्से,
जो जहां मिल के बनाये मैं वो अल्फ़ाज़ बनूँ....
बसिया उछाल मारत हौ!
उछाल मारत हौ, जान मारत हौ
सड़किया बनवा द हे राजा!
बसिया उछाल मारत हौ।
राहुल
जी के पास प्रधानमंत्री के बारे में निजी जानकारी थी इसलिए उन्होंने निजी
तौर पर मिलकर बताना उचित समझा। जनतांत्रिकता कहती है कि निजता की रक्षा की
जानी चाहिए।
सोच रहा हूं पोस्ट को पेड कर दूं. प्रमोशन के लिए हजार रु/पोस्ट. अफवाह के लिए 5000
अफ़सोस है मुझे
तुम्हारी खुशियों के लिए
खुद को 'होम' करती 'मैं'
पल पल 'जली'
फिर भी
तुम्हारी खुशियों की
वजह न बन सकी .......!!अनुश्री!!
मेरे पास आय से ज्यादा मित्रता का धन है, फिर भी इनकम टैक्स विभाग मेरा कुछ नही बिगाड़ सकता
अफ़सोस है मुझे
तुम्हारी खुशियों के लिए
खुद को 'होम' करती 'मैं'
पल पल 'जली'
फिर भी
तुम्हारी खुशियों की
वजह न बन सकी .......!!अनुश्री!!
मेरे पास आय से ज्यादा मित्रता का धन है, फिर भी इनकम टैक्स विभाग मेरा कुछ नही बिगाड़ सकता
#क्षणिका#
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हंगामा
जन्मसिद्ध अधिकार है,
जनता
लाचार है!
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© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
|
क्यों किसी साज़ की आवाज़ का मोहताज बनूँ,
क्यों मुताबिक़ किसी पसंद के अंदाज़ बनूँ,
इससे बेहतर है कि घुल जाऊं किसी झरने में,
शोर के साथ किसी दरिया का आग़ाज़ बनूँ,
खुद पे आ जाए तो पिंजरे को ले के उड़ भागे,
क़ैद से ऊबे परिंदे की वो परवाज़ बनूँ,
लोग लिखते हैं किताबों में जहां के क़िस्से,
जो जहां मिल के बनाये मैं वो अल्फ़ाज़ बनूँ....
रिश्ते-
रिश्ते क्या हैं. सम्बन्ध क्या हैं. कहते हैं, समाज संबंधों का जाल है. संबंध तो सम्बन्ध होता है. अच्छा या बुरा. किसी से आपके अच्छे सम्बन्ध नहीं हैं, तो कहिये की उससे आपके बुरे सम्बन्ध हैं. इतने बुरे की आप एक-दुसरे की शक्लें भी देखना ठीक नहीं समझते हैं. मैंने, आपने, हमने बहुतों को एक-दुसरे से मुँह फेरते देखा होगा. क्या ये हमारे ही हाथ में होता है कि हम एक-दुसरे से अच्छे ही सम्बन्ध रखे? फिर जब रिश्ते बिगड़ जाते हैं, तो किसे दोषी माना जाये? जबकि दोनों ही रिश्तों के बिगड़ने का दोषी, दुसरे को ही मानते हैं. आखिर वो कौन सा कारक है? फिर ये भी तो कहा ही जाता है की प्रेम की डोर यदि एक बार टूट जाये, तो फिर से जोड़ने पर जुड़ तो जाएगी परंतु उसमे गाँठ पड़ जाएगी. उफ... क्या हैं ये रिश्ते...??
आज की पाती को यहीं विराम देते हैं
रिश्ते क्या हैं. सम्बन्ध क्या हैं. कहते हैं, समाज संबंधों का जाल है. संबंध तो सम्बन्ध होता है. अच्छा या बुरा. किसी से आपके अच्छे सम्बन्ध नहीं हैं, तो कहिये की उससे आपके बुरे सम्बन्ध हैं. इतने बुरे की आप एक-दुसरे की शक्लें भी देखना ठीक नहीं समझते हैं. मैंने, आपने, हमने बहुतों को एक-दुसरे से मुँह फेरते देखा होगा. क्या ये हमारे ही हाथ में होता है कि हम एक-दुसरे से अच्छे ही सम्बन्ध रखे? फिर जब रिश्ते बिगड़ जाते हैं, तो किसे दोषी माना जाये? जबकि दोनों ही रिश्तों के बिगड़ने का दोषी, दुसरे को ही मानते हैं. आखिर वो कौन सा कारक है? फिर ये भी तो कहा ही जाता है की प्रेम की डोर यदि एक बार टूट जाये, तो फिर से जोड़ने पर जुड़ तो जाएगी परंतु उसमे गाँठ पड़ जाएगी. उफ... क्या हैं ये रिश्ते...??
आज की पाती को यहीं विराम देते हैं
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