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भविष्य उन निरक्षर लोगों का है, जो लाइक बटन में दक्ष होंगे!
Neeraj Badhwar
अब ममता दुआ कर रही होंगी कि काश कलाम माओवादी होते तो 'लड़ने' के लिए तैयार हो जाते!
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कितनी अजीब बात है, जिन व्यक्तियों के पीछे हम अपने जीवन के सबसे खूबसूरत क्षण बर्बाद कर देते हैं, हम अक्सर उन्ही को याद किया करते हैं
फेसबुक अब केसबुक में तब्दील हो रहा है. कई ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जिसमें फेसबुक की वजह से पति - पत्नी के बीच तलाक की नौबत आ गयी. इसके अलावा ऐसे मामलातों की तो भरमार है जिसमें रियल लाईफ की दोस्ती वर्चुअल स्पेस यानी फेसबुक पर आकर खत्म हुई.
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15-6-2012 लंगड़ा आम देसी स्वाद मीठा तेज — in Yamunanagar, Haryana.
अब इश्क में दिल से ज्यादा मोबाइल की सुननी पड़ती है.
अब भरोसा करें भी तो किस पर,
यहाँ तो हम भरोसे के मारे हुए है .
लड़ाई के मैदान में ही हमेशा बहादुरी देखने को नहीं मिलती है। यह आपके दिल में भी देखने को मिल सकती है , अगर आपमें अपनी आत्मा की आवाज को आदर देने की हिम्मत जग जाती है।
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मगर नहीं बन पातीं पत्थर, कागज ,मिटटी , हवा या खुशबू ज़िन्दगी की
ना पत्थर बनी
ना कागज ना मिटटी
ना हवा ना खुशबू
बस बन कर रह गयी
देह और देहरी
जहाँ जीतने की कोई जिद ना थी
हारने का कोई गम ना था
एक यंत्रवत चलती चक्की
पिसता गेंहू
कभी भावनाओं का
कभी जज्बातों का
कभी संवेदनाओं का
कभी अश्कों का
फिर भी ना जाने कहाँ से
और कैसे
कुछ टुकड़े पड़े रह गए
कीले के चारों तरफ
पिसने से बच गए
मगर वो भी
ना जी पाए ना मर पाए
हसरतों के टुकड़ों को
कब पनाह मिली
किस आगोश ने समेटा
उनके अस्तित्व को
एक अस्तित्व विहीन
ढेर बन कूड़ेदान की
शोभा बन गए
मगर मुकाम वो भी
ना तय कर पाए
फिर कैसे कहीं से
कोई हवा का झोंका
किसी तेल में सने
हाथों की खुशबू को
किसी मन की झिर्रियों में समेटता
कैसे मिटटी अपने पोषक तत्वों
बिन उर्वरक होती
कैसे कोरा कागज़ खुद को
एक ऐतिहासिक धरोहर सिद्ध करता
कैसे पत्थरों पर
शिलालेख खुदते
जब कि पता है
देह हो या देहरी
अपनी सीमाओं को
कब लाँघ पाई हैं
कब देह देह से इतर अपने आयाम बना पाई है
कब कोई देहरी घर में समा पाई है
नहीं है आज भी अस्तित्व
दोनों है खामोश
एक सी किस्मत लिए
लड़ रही हैं अपने ही वजूदों से
मगर नहीं बन पातीं
पत्थर, कागज ,मिटटी , हवा या खुशबू ज़िन्दगी की
यूँ जीने के लिए मकसदों का होना जरूरी तो नहीं ...........
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मुझे 3 जी का डोंगल वाला नेट लेना है... इस्तेमाल 3 से 5 GB ... कौन सा वाला बेहतर रहेगा ?
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Manaash Grewal
“अक़्सर ऐसा होता है कि हमें अपने ढ़ोंग का अहसास नहीं हो पाता। हम अपनी गंभीरता के आवरण को बनाए रखने के लिए और बढ़ती उम्र की नैतिकता के नाम पर प्रेम कविताओं को पसंद करने या उन पर टिपण्णी करने से बचना चाहते हैं। लेकिन क्या प्रेम से बचा जा सकता है? जब हम समाज की अराजकताओं पर प्रहार करते हैं, समाजवाद के निर्माण का स्वप्न देखते हैं और जब अपने बचपन एवं युवावस्था को एक आह लेकर याद करते हैं, तो साथ ही हम स्वीकार कर रहे होते हैं; -प्रेम और उसकी सार्वभौमिकता को। दरअसल यह एक किस्म की ग़ुलामी है जिसका हमें भान नहीं हो पाता। मैं अपनी आवारगी और मुक्तता से दुआ करूंगा कि कोई भी उम्र मुझे प्रेम की सराबोरिता से दूर ना करें। यही प्रेम है, मेरी आज़ादी है और सार्वभौमिकता की तरफ़ बढ़ते मेरे क़दमों की आहट भी। क्योंकि हर एक महान रचना के पीछे, एक उतनी ही विशाल और महान चाहत छुपी होती है। मृत्यु जो सार्वभौमिकता की दास है, न केवल उसे उसकी दासता से मुक्त करवाना है बल्कि यह भी पता लगाना है कि आखिरकार मृत्यु जैसी विशाल रचना के पीछे कौनसी और किसकी चाहत काम कर रही है? दलित के झोपड़े से लेकर दूर कहीं अनंत में किसी तारे के सुपरनोवा विस्फोट का प्रेम ही सार है।”
-- मनास ग्रेवाल।
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Suman Pathak
सब कुछ है पास ..
फिर भी इंतज़ार क्या है..
यूँ दूर कुछ धुन्ध सा..
दिखता क्या है...
मंज़िल नहीं है मेरी ..
मन की कोई ख्वाहिश..
सफ़र में ये तमाशा क्या है...
डोकरा तुमने ठीक नहीं किया :(
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Ratnesh Tripathi
मन की प्रशन्नता जब द्वन्द के बादल से टकराती है
बहुत सारे अर्थ अनर्थ हो जाते हैं
इस जड़वत हो चुके संसारी रिश्तों में
घुटने लगता है मन
खोजता है फिर वो टकराहट
जिससे की टूट जाए ये रिश्ते
और बरस पड़े बादल
ताकि बह जाएँ संसारी रिश्ते
और ..........जन्म ले नया कोंपल
ताकि मन फिर प्रसन्न हो सके
और द्वन्द जड़वत हो जाये .....................रत्नेश
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धारावाहिक 'अफसर बिटिया' का नाम बदलकर 'जासूस बिटिया' कर देना चाहिए. BDO मैम आजकल कुछ ज्यादा ही जासूसी करने लग गयी है. ऐसी जासूसी किसी BDO के द्वारा पहले नहीं देखी. अब धारावाहिक के निर्देशक अति कर रहे हैं.
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बहुत कुछ मीडिया के तात्कालिक-दिखाऊ भावुक-वायवीय संस्कारों से प्रेरित होकर हिन्दी की वर्तमान दशा से दुखी को 'हा हिन्दी, हा हिन्दी' का रूदन सुनने में आता रहता है. अक्सरहा लगता है कि यह पढ़े लिखों की चोचलेबाजी भी है, जो खुद अपने बच्चों का भविष्य अंगरेजी माध्यम में देखते हैं, और उपदेश हिन्दी-हित का देते हैं. इसमें मुझे मध्यवर्गीय उत्तरभारतीयों का दोहरा चरित्र दिखता है जिसकी चिंता और कर्म/व्यवहार में धरती और आकाश के बीच का अंतर होता है. लेकिन वह दूर क्षितिज में दोनों के मिलने की काव्यात्मक कल्पना में खुश रहता है, खुद को मागालते में रखे वह इसी खुशी की जद्दोजहद में लगा रहता है! (हिन्दी को कैरियर के रूप में लेने वाले भी इस निष्कर्ष से बावस्ता होते रहते हैं कि 'हिन्दी पढ़ के कौन अपना भविष्य बर्बाद करे!, जिसमें सच्चाई भी है) देखने में आता है कि हिन्दी न आकाश तक छहर सकती है न धरती पर पसर सकती है, यह इसका दुर्भाग्य है. आकाश पर अंगरेजी है और धरती पर लोकभाषाएं. जो धरती पर लोकभाषाएं हैं वे इसके(हिन्दी के) क़दमों के नीचे हैं और यह खुद अंगरेजी के क़दमों के नीचे है. दुर्भाग्य से यह त्रिशंकु स्थिति में है, और कर्मनाशा में नहाना अपन का धर्म/दायित्व/जरूरत/नियति/खुशी!(जो भी शब्द दे लीजिये)
बढ़िया है गुरु....:-)
जवाब देंहटाएंशुक्रिया माट साब
हटाएंबहुत सुन्दर भईया ......आपका जबाब नहीं ....
जवाब देंहटाएंरत्नेश
अजी जवाब तो आप सबका नहीं है , हमने तो बस सहेज भर लिया है :)
हटाएंnice
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मुकेश जी
हटाएंसुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
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