Followers

शनिवार, 12 मई 2012

हर चेहरा कुछ कहता है








मैं बहुत कुछ लिखना चाहता हूं, मगर कमजोरी...वह स्‍थायी थकावट, जो मेरे ऊपर तारी रहती है, कुछ करने नहीं देती। अगर मुझे थोड़ा-सा सुकून भी हासिल हो, तो मैं वो बिखरे हुए खयालात जमा कर सकता हूं, जो बरसात के पतंगों की तरह उड़ते रहते हैं, मगर...अगर...अगर करते ही किसी रोज मर जाउंगा और आप भी यह कहकर खामोश हो जाएंगे, मंटो मर गया।...मंटो तो मर गया, सही है... मगर अफसोस इस बात का है कि मंटो के यह खयालात भी मर जाएंगे, जो उसके दिमाग में महफूज हैं।
--मंटो ने अहमद नदीम कासिमी को 12 फरवरी, 1938 को एक ख़त में लिखा।



सूरत बदल गई पर दिल तो वही पुराना,
हम तो समझ रहे पर नासमझ ज़माना !
 



एक बड़ा तबका निजी और समाजिक जीवन में तमाम सफलताओं के बावजूद इस बात को लेकर दुखी रहता है कि वो जो बनना चाहता था वो बन नही पाया .
 
 



कद्रदान मुझ जैसे मिला हो कोई तो बताओ ?
कद मेरा तुमसे पहले न बड़ा था ,न बड़ा है !
सुप्रभात !
 

  • विवेक और बुद्धि के अभाव में नेता कुछ भी कर सकते हैं......... 
 
 
किस्मत का हाल भी है तेरी जुल्फ के जैसा

अपनी कोशिशों से तो बस ये उलझा ही करे


रिश्तों के बदले सीन, हीर मिले मजनूं से

और लैला से मुलाकात तो अब रांझा ही करे


दारु मिल जाये उसे, तो खेंच ले अकेला ही

दुख हों अगर पास, तो उनको वो सांझा ही करे


एयर इंडिया का पायलेट है या सुब्रहण्यम स्वामी

जो मिल जाये उसे, उससे वो जूझा ही करे


दूर रहना आलोक से, खतरनाक से हैं

उन्हे तो रोज ही खुराफात सूझा ही करे


इश्क की पहेली के हल होते ही नहीं

जो भी बूझे, उम्र भर बूझा ही करे
 
आदमी विज्ञापन ,
आदमी इंटरनेट ,
आदमी है घोटाला
आदमी कुछ नहीं साइबर का एक शोला
नाचता , हांफता , दौड़ता सा आदमी
निरंतर बैचेन , बेलिहाज़
अब पूंजी में बदल गया है आदमी
चंचल पूंजी ...
हर समय अस्थिर ...
न जाने हम कि अब क्या है आदमी
हमारी पकड़ से तो अब बाहर है आदमी
आदमी है एक पहेली
वो न सुलझी है न सुलझा है आदमी |
 
 

  • कभी कभी ये नादान शब्दों के घेरे हमारे जज्बातों को समेट नहीं पाते, ये एहसास यूँ ही बारिश के रंग में घुलकर बहते रहते हैं इन गलियारों में... जाने क्यूँ अचानक से इस बारिश में सांस लेने में तकलीफ होने लगती है, जैसे ऑक्सीजन इन पानियों में भीगकर कुछ और ही बन गया है...
     

    दोस्तो ! इस बार गर्मियों की छुट्टियों में कहां जाना चाहिये ? ज़रा मशवरा दीजिए ।

तारो के तेज में चन्द्र छिपे नहीं

सूरज छिपे नहीं बादल छायो

चंचल नार के नैन छिपे नहीं

प्रीत छिपे नहीं पीठ दिखायो

रण पड़े राजपूत छिपे नहीं

दाता छिपे नहीं मंगन आयो

कवि गंग कहे सुनो शाह अकबर

कर्म छिपे नहीं भभूत लगायो।


कवि गंग
चिलचिलाती धुप
सुलगती जमीन
और आग उगलता आसमान
ऐसे ठीक दुपहरिया में
किसी वीराने में जाकर
एकदम से मस्त होकर
सुहानी मौसम का आनंद महसुसना
कितना मनमोहक
बोलो भला
पगला गया है क्या
मरने का उपाय सुझा रहे हो का

हे हे
दिखावे पे ना जाओ
अपनी अकल लगाओ
 
 
 

‎... मूलत: यह मातृत्त्व से घृणा है जो कि पुरुष के प्रति अभिव्यक्त होती है। - समझावन साव के एक गम्भीर आलेख की अंतिम पंक्ति।
 

एक उम्र जीती है हमने .....एक उम्र हार के ..। ;)
 

जरा सोचिए......देश के भविष्य का वास्ता देकर एक नारा दिया गया था ...... दो या तीन बच्चे, होते हैं घर में अच्छे । इस पर देश वासियों ने अमल किया भी, नहीं भी । कारण कुछ भी रहे हों, तीन बच्चे... अच्छे होते तो थे.... पर घर में, सफर में नहीं । अब नारा देने वालों ने मुसीबत कम करने में मदद की और दूसरा सीधा सपाट सा नारा ठोंक दिया... हम दो, हमारे दो । जी हां, हम दो, हमारे दो । इसके बाद, चैन से सो...हरकत बंद, तीसरे पर प्रतिबंध । यह नारा कुछ ठीक लगा । सफर में रंग रहे । दो बच्चों का संग रहे । मियां बीवी के गिले शिकवे समाप्त । परिवार की इस मिली-जुली उपलब्धि को फिफ्टी-फिफ्टी बांट कर चलो मजे से, सफर हो या सैर सपाटा । परिवार, न बढ़ा, न घटा । जनसंख्या भी जहां की तहां । मगर मेरे देश के लल्लुओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी और बड़े परिवार को संभालने में चारा तक खा गये । नतीजा..... नारा, न रहा ।
 

आमिर ख़ान के साथ 'दिल पे लगी और बात बनी' सुनिए। सभी हिंदी भाषी राज्‍यों में अभी ग्‍यारह बजे से। ये कार्यक्रम टीवी शो सत्‍यमेव जयते का फॉलोअप है। अगर अभी चूक जायें तो विविध भारती पर दिन में साढ़े तीन बजे सुनिएगा।



मैंने यहाँ कोई एक बात लिखी..उसी आशय की कोई बात किसी और ने कही दूसरी जगह पढ़ी ..उसने कहा ..कि उसने तो ये बात कही और पढ़ी ..ये आपकी नहीं है जब कि मैंने कही से पढ़ के नहीं लिखी थी..जानती हूँ कि मै अपनी जगह पे सही हूँ.फिर भी सवाल ये है कि --- एक ही विचार/बात क्या दो लोगो के दिमाग में नहीं आ सकती ?

एक पुरानी, घिसी-पिटी कहानी को नए अंदाज में किस तरह कहा जा सकता है, निर्देशक हबीब फैज़ल ने 'इशकजादे' में इसी कौशल को दिखाया है। फिल्म में किलो के भाव में गोलियां चली हैं, लेकिन मुंबइयां फिल्मों की तरह इन गोलियों के अंधड़ में मरता एक भी नहीं है। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर को केंद्र में रखकर लिखी इस कहानी में पुलिस नाम की चिड़िया दूर दूर तक नहीं दिखायी देती। लेकिन, पर्दे पर जो भी दिखायी देता है, उसे भरोसे लायक बनाने में अर्जुन कपूर और परिणिती चोपड़ा ने शिद्दत से कोशिश की है। फिल्म पैसा वसूल है, लेकिन बच्चों को न दिखाएं तो बेहतर है :-)



आज शाम को जबरदस्त गोलगप्पा पार्टी होगा..... घर में ही बनेगा और फ़िर नो लिमिट का गैरैन्टी.... :-)


जब कोई पूरे होशो-हवास में यह कह रहा हो कि फ़लां को फ़लां अपराध के लिए सरे-आम गोली मार देनी चाहिए, फ़ांसी पर लटका देना चाहिए, सामाजिक बहिष्कार कर देना चाहिए......तो तुरंत समझ जाना चाहिए कि वह फ़ासीवादी-तालिबानी मानसिकता का अहंकारी व्यक्ति है और लोकतंत्र और उदारता का चोला उसने किसी मजबूरी या रणनीति के तहत पहन रखा है। अपनी बात को अंतिम सत्य मानने वाले ऐसे किसी समूह के हाथ में सत्ता दे देने का मतलब है कि भविष्य में आप भ्रष्टाचार या अन्य किसी बुराई की अपनी तरह से व्याख्या करने की स्वतंत्रता भी खो देने वाले हैं।


शंकर ने एक कार्टून बनाया जब अम्बेडकर और नेहरु दोनों ज़िंदा थे. मुझे पूरा यकीन है कि इन दोनों ने इस कार्टून को पसंद किया होगा. मगर इस पर ही दलित राजनीति शुरू हो गई. सरकार ने तुरंत माफी मांग ली. किताब से हटा दो, यह फतवा भी इशु हो गया. कल संसद में जो हुआ उस पर ही एक कार्टून बनना चाहिए.



हँसी आती है मुझे तेरी हर बात से
बेतुकी जो होती हमेशा शुरुआत से


इश्क में दिल सबसे ज्यादा संक्रमित होता है इसलिए डिटोल का इस्तेमाल अवश्य करें...



  • खुद को जानना सबसे कठिन काम होता है. आदमी अपना चेहरा कभी नहीं देख पाता, अगर आइना, पानी, कैमरा या ऐसी ही चेहरा दिखाने वाली दूसरी वस्तुएँ इस दुनिया में ना हों तो.
    हम खुद में क्या सोचते हैं, ये हमीं जानते हैं, पर हमारे दूसरों के प्रति व्यवहार का आकलन दूसरे लोग ही ज्यादा ठीक से कर पाते हैं.

4 टिप्‍पणियां:

पोस्ट में फ़ेसबुक मित्रों की ताज़ा बतकही को टिप्पणियों के खूबसूरत टुकडों के रूप में सहेज कर रख दिया है , ...अब आप बताइए कि आपको कैसी लगे ..इन चेहरों के ये अफ़साने