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रविवार, 8 जनवरी 2012

चेहरे भी जाने क्या क्या कह जाते हैं








पथरे क हाथी लियाउब मोरी धनिया
हथीया के ओढ़ना ओढ़ाउब मोरी धनिया
जाड़ा लगिहे तोहे त जिनि फिकिरया किहू धनिया
कल्ले से मोर करेजवा तब सटाउब तोहे धनिया

पथरे क हथीया लियाउब मोरी धनिया :)

( मैं पत्थर का हाथी लाउंगा प्रिये,
उसे ओढने से ढंक ठंड से बचाउंगा प्रिये
तुम्हें जो ठंड लगे तो चिंता मत करना प्रिये
हौले से तुम्हें कलेजे से सटाउंगा प्रिये

मैं पत्थर का हाथी लाउंगा प्रिये :)

- सतीश पंचम



आज आये हो और कल चले जाओगे....ये मोहब्बत को मेरी गवारा नही...|
उम्र भर का सहारा बनो तो बनो.....चार दिन का सहारा सहारा नही....|
अनूप जलोटा जी के गजल से!



‎... तबियत मस्‍त करता कोहरा और गरमागरम पकौडि़यों के संग मैजिक मूवमेंट !!! अब सारे काम भी बन जाएंगे, जाड़े की ऐसी की तैसी। कोहरे के बावजूद सब कुछ क्लियर दिख रहा है। बोलिए भैरवनाथ की जय... अब आप भी लगाओ। चीयर्स ... जय हो।
 
 

तेरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
गुज़र गए हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब में
इक उम्र हो गई चेहरा वो चाँद-सा देखे...
 
 

किस किस को दीपक प्यार करे ......जब लाख पतंगे जलते हों ....:P
 
 

शीत पर - ३ -

“कोहरा से डरा-डरा, भोर भिनुसार काँपै,

सगरौ जँवार, काँपै सुरुज-किरिनियाँ।

खेत-खरिहान अनुमान कै किसान काँपै,

राह सुनसान काँपै, काँपै दीन-दुनियाँ।

पतिया सिरात काँपै, दिन काँपै, रात काँपै,

बच्चन कै दाँत काँपै, दादी कै कहनियाँ।

तन काँपै, मन काँपै, धरती-गगन काँपै,

कान्हा कै सपन काँपै, राधा कै ओढ़नियाँ॥३॥” ~कवि आदित्य वर्मा
 
 
 

यह कौन-से आंदोलन का प्रभाव है कि हर पार्टी भ्रष्टाचार-विरोधी की ‘इमेज’ भी बनाना चाह रहीं हैं और धड़ाधड़ दलबदलुओं को भी ‘ऐडजस्ट’ कर रहीं हैं !
 
 
 

मेरी फोटोग्राफी !





बस आँखों में डाल आँखें पास मेरे बैठी रह
 कबूल तेरे सब इल्जाम ठंड और संडे दोनों है
 

का संडे है...जड़ान जड़ान दिन लागत है नून में भी गुड मार्निंग है बड़ा कनफूजन है भैया
 
 

चले थे अकेले
जुडते रहे लोग
कारवां चलता रहा.
आये कुछ मोड़
छोड़ गये साथी,
आज इस मोड़ पर
खड़ा अकेला
देख रहा हूँ
कदमों के निशां
उस कारवां के.

...कैलाश शर्मा
 
 

निर्वाचन आयोग को गाँधी, नेहरू, इन्दिरा और राजीव की मूर्तियों और चित्रों को सार्वजनिक स्थानों से हटाने का आदेश देना चाहिये जिन के नामों को काँग्रेस पार्टी वोट बटोरने के लिये इस्तेमाल करती है। इस के अतिरिक्त उन सभी सरकारी योजनाओं पर रोक लगानी चाहिये जो उन के नाम पर सरकारी खर्चे पर चलायी जा रही हैं।

काँग्रेस का झण्डा राष्ट्रीय झण्डे का भ्रम पैदा करता है इस लिये उसे भी इस्तेमाल करने पर रोक लगनी चाहिये।
 
 

यह चुनाव आयोग का पक्षपात ही कहा जाएगा जिसने बुतों को ढकवाने का फतवा जारी कर दिया पर सरकारी योजनाओं में एक परिवार के लोगों का नाम आने को कभी गलत नहीं समझा । कांग्रेस का झण्डा राष्ट्रीय झण्डे से मिलता-जुलता है लिहाजा राष्ट्रीय झण्डे को भी चुनाव तक छिपा देना चाहिए
 

आज से मैं 'एलीट' किस्म की भक्त हूँ ..!!!
 
 

देखा है मैने ,और तुमने भी,.....कि चाहे वह सूरज हो या हो चाँद !
सुबह -साझ की कोख मे से ही जनम लेते है ,और सुबह - साझ की गोद मे ही सो जाते है ।
वह सुबह -साझ कभी तुम होते हो, कभी मैं.............."गोपाल सहर जी "
 

चल कर नेहरू प्‍लेस
कुछ तकलीफ पैरों को दूं

ऊंगलियां तो कीबोर्ड पर
सुबह से नृत्‍य कर रही हैं

पैरों को तकलीफ देने का वायदा
जालिम ऊंगलियों ने ही किया है

हाथ की ऊंगलियां बख्‍शती नहीं
न पैरों को, न दिमाग को, न खुद को।
 

  • दिल की कोई कहाँ सुनता है जमाने के आगे ...
    सब सिर्फ ये कहकर ही वक्त गुजार देते हैं |
    दिल ने मुझसे कही और हमने तुमसे कह दी
    अब बस जमाने के हाँ कहने भर की देरी है |
 
 

परेशान हूँ यारों....दिल्ली की सर्दी...ऑफिस की गर्मी....क्या है इलाज़ इसका
 
 

  • ‎" अंत " की दिशा में" सँलग्न " रहो " मुस्कुराओ " अपनी असमर्थता पर …

    तब हो " सकता " है नवीन जीवन की उदय भावना -

    फिर भी " मुस्कुराना " मेरी असमर्थता पर …
    वैरागी " अंतर्द्वंद " से कुछ निकलना होगा -

    " जँगलों " की वीरानगी को चीरते हुवे -

    " ऊँची " - " ऊँची " चट्टानों , से सानिध्य बनाओ नदियों से -

    फिर भी चिल्लाते - मुस्कुराते हो अपनी असमर्थता पे-
 
 

  • चांद अब नहीं उतरता आंगन में मेरे
    पड़ोसी ने जोड़ी फिर मकां में 'स्टोरी'।
 

अरे गजब हो गया भाई, कानपुर के कैंट इलाके में एक हाथी सड़क पर मदमस्त होकर टहल रहा था, वो भी बिना पर्दे के.. उधर साइकिल भी चल रही थी..अरे अरे..ट्रैफिक पुलिस वाले भैया हाथ दिखाकर मुझे रोक रहे हैं लाल बत्ती पर.. और उधर सड़क के किनारे एक छोटी बच्ची टोकरी में कमल बेच रही है.. गजब हो गया भाई ...सब संहिता का अचार बना रहा है भाई... (यूपी वाणी)
 


फेसबुक सक्रियता को मेरा ठलुआपन ना समझ मेरे दोस्त,
संचार संसाधन तो अब हथेलियों में सिमट सा गया है. ..

कुछ बातें, कुछ सपने, कुछ इंसान और भी न जाने क्या क्या... बहुत कुछ ऐसा होता है जो भुलाए नहीं भूलते... इंसान की सोच इतनी खुरदरी होती है न कि काफी कुछ फंसा रह जाता है... भूलने और याद रखने के बीच का ये गलियारा जहाँ हर परछाईं से हम बचना चाहते हैं, लेकिन ऐसा कर नहीं पाते...




काश के जिंदगी भी किसी सिल्वर स्क्रीन की ही तरह होती, एक फंतासी ताउम्र बनी रहती, वे दोनों जब उसी ऑटोरिक्शा में जब आखिरी बार कुछ लम्हों के लिए हाथ पकड़े बैठे रहे थे, बस उसी छण कैमरे का क्लोज अप उन हाथो पर जाकर खत्म हो जाता.. आगे क्या हुआ, किसी को पता नहीं.. सभी किसी कयास में ही डूबे रहते.. किसी हैप्पी इन्डिंग की तरह सभी खुश रहते हैं..

मगर यह यथार्थ है, असली जिंदगी.. कोई परिकथा नहीं जिसमें सब वैसा ही अच्छा-अच्छा होता रहे जैसा आप चाहते हैं..

7 टिप्‍पणियां:

  1. अरे वाह !
    हम भी है ...बहुत बहुत धन्यवाद अजय भयिया अपने दिल में स्थान देने के लिए!
    रत्नेश त्रिपाठी

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  2. वाह ये अंदाज़ खूब रहा भाई ....शुक्रिया !!

    जवाब देंहटाएं
  3. चहेरो को पढना तो कोई आप से सीखे ... ;-)

    जवाब देंहटाएं

पोस्ट में फ़ेसबुक मित्रों की ताज़ा बतकही को टिप्पणियों के खूबसूरत टुकडों के रूप में सहेज कर रख दिया है , ...अब आप बताइए कि आपको कैसी लगे ..इन चेहरों के ये अफ़साने