सचमुच शादीशुदा इंसान के लिये वैलेंटाईन सैलेंटाईन जैसे सारे उत्सव कोई मायने नहीं रखते। ऑफिस से जल्दी आ गया कि संग चाय वाय पियेंगे, गप्पा गोष्टी करेंगे और घर आकर देखता हूं कि ताला लगा है और श्रीमती जी चक्की पर आटा पिसाने गई हैं :)
दुष्ट बादल....huhh
लो आज फिर बारिश होने लगी
जब भी तुम दूर जाते ह़ो
बारिश होने लगती है
माना की मन उदास है
तन्हाई है
तकलीफ भी है
पर ये भी कोई बात है भला
तुम्हारी ग़ैर-हाज़री में
ये बादल
सेंध लगा कर
बस चले आते हैं
ये भी नहीं समझते की
ठण्ड में रुखसार पे
नमकीन पानी
बहुत जलन करता है
दुष्ट बादल....huhh
लो आज फिर बारिश होने लगी
जब भी तुम दूर जाते ह़ो
बारिश होने लगती है
माना की मन उदास है
तन्हाई है
तकलीफ भी है
पर ये भी कोई बात है भला
तुम्हारी ग़ैर-हाज़री में
ये बादल
सेंध लगा कर
बस चले आते हैं
ये भी नहीं समझते की
ठण्ड में रुखसार पे
नमकीन पानी
बहुत जलन करता है
दुष्ट बादल....huhh
हाँ, नहीं, पता नहीं...
इन चार लफ्जों में गोया हम सबकी ज़िन्दगानियाँ उलझी हुई हैं.
अँधेरे में रहने वालो ,अँधेरे का राज़ ना खोलो
कांच के सपने टूट ना जाएँ ,आहिस्ता -आहिस्ता बोलो|
माना कि मन की बात लिखना जरुरी है
माना कि जीवन की बात लिखना जरुरी है
पर इन सबसें भी ऊपर उठ कर आशा
अपने वतन की बात लिखना जरुरी है
माना कि सावन की बात लिखना जरुरी है
माना कि बसंत की बात लिखना जरुरी है
पर वक्त की नब्ज को पकड़ कर आशा
अब परजातंत्र की बात लिखना जरुरी है
माना कि जीवन की बात लिखना जरुरी है
पर इन सबसें भी ऊपर उठ कर आशा
अपने वतन की बात लिखना जरुरी है
माना कि सावन की बात लिखना जरुरी है
माना कि बसंत की बात लिखना जरुरी है
पर वक्त की नब्ज को पकड़ कर आशा
अब परजातंत्र की बात लिखना जरुरी है
ये
है हमारी लोकतान्त्रिक संस्थाओ के हाल. देश की सर्वोच्च संस्था हो या किसी
शहर की. केंद्र का मंत्री हो या एक पार्षद, सब जगह कमोबेश यही हाल है.
कानून और जनता का किसी को डर नहीं . हम को लोकतान्त्रिक परम्परोअ की नाम पर
चुप कराने वाला यह वर्ग खुद कितना अनुशाशन हीन और बेखौफ है, सब के सामने
है. अपने हक की आवाज उठाने वाले हर सक्श को डरा धमका कर चुप कर दिया जाता
है. कोई नहीं चाहता की आम जन की स्तिथि में सुधार
हो. गरीबो की भूख मिटे, उन्हें तन ढकने को कपडा और सर छुपाने को आसरा
मिले. चुनावो में बरसाती मेंढको की तरह आते नेता, चुनाव ख़त्म होते ही
विलुप्त हो जाते है. लम्बे चौड़े वादे और लच्छे दर भाषण, बस यही है
लोकतंत्र. और फिर चालू होती है पांच साल तक न ख़तम होने वाली लूट. सब कुछ
जानते बूझते भी पंगु बन देखते रहते है हम. क्या जरुरत है इन विधाई संस्थाओ
की. जनता के ऊपर बोझ है यह. लोकतंत्र के नाम पर हमारे खून पसीने की कमाई की
यूँ बर्बादी क्यों ???
उनके जैसा ...
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लाख हिदायतों के बाद भी
हुआ इतना ही है
कि वो
मेरे जैसे नहीं हो जाए
पर, हाँ
उनके कुछ कहे बगैर ही
देखो
मैं बिलकुल उनके जैसा
कठोर, निर्दयी हो गया हूँ !!
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लाख हिदायतों के बाद भी
हुआ इतना ही है
कि वो
मेरे जैसे नहीं हो जाए
पर, हाँ
उनके कुछ कहे बगैर ही
देखो
मैं बिलकुल उनके जैसा
कठोर, निर्दयी हो गया हूँ !!
फेसबुक.......यह भी खूब रही जनाब.
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