आइए देखें कि आज दोस्त/मित्र अपनी फ़ेसबुक यानि मुखपुस्तक पर क्या लिख बांच रहे हैं ...........>>>>>
क्या अब मुँह खोलेंगे P.M.!!
गैंग्स आफ डिसबैलेन्सपुर
बड़ी मुश्किल से खुद को “गैंग्स आफ वासेपुर” का रिव्यू लिखने से रोक पा रहा हूं। अब औचित्य नहीं है। अनुराग कश्यप चलती का नाम गाड़ी हो चुके हैं। स्पान्सर्ड रिव्यूज का पहाड़ लग चुका है। वे अब आराम से किसी भी दिशा में हाथ उठाकर कह सकते हैं- इतने सारे लोग बेवकूफ हैं क्या? फिर भी इतना कहूंगा कि दर्शकों को चौंकाने के चक्कर में कहानी का तियापांचा हो गया है।
धांय-धांय, गालियों, छिनारा, विहैवरियल डिटेल्स, लाइटिंग, एडिटिंग के उस पार देखने वालों को यह जरूर खटकेगा कि सरदार खान (लीड कैरेक्टर: मनोज बाजपेयी) की फिल्म में औकात क्या है। उसका दुश्मन रामाधीर सिंह कई कोयला खदानों का लीजहोल्डर है, बेटा विधायक है, खुद मंत्री है। सरदार खान का कुल तीन लोगों का गिरोह है, हत्या और संभोग उसके दो ही जुनून हैं। उसकी राजनीति, प्रशासन, जुडिशियरी, जेल में न कोई पैठ है न दिलचस्पी है। वह सभासद भी नहीं होना चाहता न अपने लड़कों में से ही किसी को बनाना चाहता है। उसका कैरेक्टर बैलट (मतिमंद) टाइप गुंडे से आगे नहीं विकसित हो पाया है जो यूपी बिहार में साल-दो साल जिला हिलाते हैं फिर टपका दिए जाते हैं। होना तो यह चाहिए था कि रामाधीर सिंह उसे एक पुड़िया हिरोईन में गिरफ्तार कराता, फिर जिन्दगी भर जेल में सड़ाता। लेकिन यहां सरदार के बम, तमंचे और शिश्न के आगे सारा सिस्टम ही पनाह मांग गया है। यह बहुत बड़ा झोल है।
कहानी के साथ संगति न बैठने के कारण ऊमनिया समेत लगभग सारे गाने बेकार चले गए हैं। ‘बिहार के लाला’ सरदार खान के मरते वक्त बजता है। गोलियों से छलनी सरदार भ्रम, सदमे, प्रतिशोध और किसी तरह बच जाने की इच्छा के बीच मर रहा है। उस वक्त का जो म्यूजिक है वह बालगीतों सा मजाकिया है और गाने का भाव है कि बिहार के लाला नाच-गा कर लोगों का जी बहलाने के बाद अब विदा ले रहे हैं। इतने दार्शनिक भाव से एक अपराधी की मौत को देखने का जिगरा किसका है, अगर किसी का है तो वह पूरी फिल्म में कहीं दिखाई क्यों नहीं देता
बिगरी बात बने नहीं लाख करे किन कोय।
रहिमन बिगरे दूध को मथे न माखन होय॥
सेबेस्तियो सल्गादों की इस तस्वीर के साथ दुनिया भर के मेहनतकश मजदूरों को मेरा सलाम ,मुमकिन हो तो प्रार्थना के स्वर बदल दीजिए ,हमारी प्रार्थना जय मेहनतकश ,जय मजदूर होनी चाहिए |आइये इस तस्वीर के साथ पढ़ें नरेश अग्रवाल की ये कविता
अभी सूरज भी नहीं निकला होगा
और तुम जा जाओगे
तुम्हारे जागते ही
जाग जायेंगे
ये पेड़-पक्षी और
धूलभरे रास्ते
तुम हॅंसते हुए
काम पर बढ़ोगे
और देखते ही देखते
यह हॅंसी फैल जायेगी
ईंट- रेत और सीमेंट की बोरियों पर
जिस पर बैठकर
हॅंस रहा होगा तुम्हारा मालिक
वह थमा देगा तुम्हारे हाथों में
कुदाल, फावड़े और बेलचे
बस शुरू हो जायेगी
तुम्हारी आज की लड़ाई
इस लड़ाई में
खून नहीं पसीना गिरेगा
जिसे सोखती जायेगी धरती
एक रूमाल बनकर बार-बार
जीत होगी दो मुट्ठी चावल
एक थकी हुई शाम
घर लौटने का सुख
और बच्चों की याद
बच्चे कभी नहीं पूछेंगे
तुम कौन सा काम करते हो
वे समझ जायेंगे
तुम्हारी झोली देखकर
हमेशा की तरह
तुम आज भी
हार कर लौटे हो ।
बड़का बड़का लीडर लोग "ते सब हंसे मष्ट करि रहहू" की मुद्रा में जमे हैं। बेचारे वीरभद्र सिंह को तो त्यागपत्र देना पड़ रहा है!
हर तरफ हर जगह बे शुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी
तन्हाइयाँ कई तरह की हैं
आखिरकार पत्नी समेत वीरभद्र पर भ्रष्टाचार का आरोप हो गया तय ,
जय हो , कांग्रेस की सरकार में करप्शन का खूब बना रहता है लय ,
आउर जुलुम तो ई देखिए कि , भारत निरमान भी होता रहता है एकदम्मे से
सुनो मुक्तिबोध, यहां सब 'अंधेरे में' हैं...
"पति " शब्द ....मेरे विचार से उचित नहीं ....मालिक होने का भ्रम पैदा कर देता है ....पतिव्रता होना .....गुलामी ...या वफादारी का सर्टिफिकेट है .....
व्रत तो एक ही उत्तम है .......सत्य का अनुगमन करने का ....अगर सत्य को जीवन मे उतरने दिया जाय ..फिर किसी स्वांग की जरूरत भी नहीं ......और जब सभी सत्य पर होंगे तो सत्य हारेगा किससे ?..सत्य मेव जयते ही रहेगा ...बेकार के तमाम आडम्बर अपने आप स्वाहा हो जायेंगे ....
मैं पति की बजाय साथी कहलाना ज्यादा पसंद करूँगा ...वाकई मे कोई किसी का मालिक कैसे हो सकता है ...जब सभी का मालिक एक है ....
अपनी पत्नी के लिये भी जीवन-साथी शब्द का इस्तेमाल ही ज्यादा श्रेयस्कर है ....इसी बात पर एक गीत याद आया ....
"जीवन साथी हैं .....दिया और बाती हैं ...."कोई मेरा मित्र ढूंढ कर इस गीत को यहाँ पोस्ट भी कर देगा ...ऐसा मेरा विश्वास है .....नमस्कार मित्रों !!!
चिलचिलाती धूप में अक्सर कुछ लोगों को नाक से खून बहने की शिकायत होती है। इसे नकसीर भी कहा जाता है। यह मौसम के अनुसार शरीर में अधिक गर्मी बढ़ने से भी हो सकता है और कुछ लोगों को अधिक गर्म पदार्थ का सेवन करने से भी होती है।
पन्नों को महकने के लिये शब्दों का इत्र तो चाहिये
जीवन को चहकने के लिये मोहब्बत का कलरव तो चाहिये
ये अजब पर्दानशीनी है तेरे मेरे बीच या रब
तुझसे मिलन के लिये एक कसक तो कसकनी चाहिये
चहूँ ओर ... अस्त-व्यस्त
जनता त्रस्त
मंत्री-अफसर मस्त
सत्ताधारी मदमस्त
और लोकतंत्र हुआ है पस्त
कब होगा 'उदय' -
इन भ्रष्टों का सूरज अस्त ?
बचपन में एक कहावत पढ़ी थी ये आज भी उतनी ही सही यानि सोलह आने सच है - लोग अपने दुखों/परेशानियों से उतने दुखी नहीं हैं जितना दूसरों के सुख/तरक्की देखकर उन्हें खुजली होती है, या दूसरे शब्दों में (सरल भाषा में) कहें तो परेशानी होती है।
तुम्हारी करवटों की सलवटें हम तक पहुँच गई
सिसकिया हमारी उमड़ी और अम्बर से बरस गई ...सोनल
रोचक!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सर
हटाएंbadhiyaa
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सोनल जी
हटाएंवाह क्या खूब अन्दाज़ है। आभार्।
जवाब देंहटाएंआभार वन्दना जी :)
हटाएंbahut sundar ... jay ho ! vijay ho !!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया उदय जी आपका बहुत बहुत आभार
हटाएंबहुत खूब .. आपका यह अंदाज़ भी निराला है
जवाब देंहटाएंशुक्रिया वर्मा जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
हटाएंGreat comments by FB users..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दिव्या जी
हटाएंजय हो महाराज ...
जवाब देंहटाएंजय जय हो मिसर जी
हटाएंbahit badhiya
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंसार्थक
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